Wednesday, August 1, 2012

इसलिए अक्सर वो जाते रूठ हैं | मैं यत्न करके मना लूँगा उन्हें ||
पास अपने मैं बुला लूँगा उन्हें || अपने सीने से लगा लूँगा उन्हें ||
रूठते हैं मान जाने के लिए | दो घडी मुझको सताने के लिए ||
रूठते हैं इस कदर, जाता हूँ डर | खिलखिला उठते हैं मेरे हाल पर ||
सोचता हूँ मैं सजा दूंगा उन्हें | क्या मुहब्बत के सिवा दूंगा उन्हें || मैं यत्न करके मना लूँगा उन्हें ||
रूठना जिनका नहीं जाता सहा | उनसे बिछड़ा ग़र, जियूँगा किस तरह ||
मैं प्यालों को गले लूँगा लगा |उनको क्या, खुद को भी, दूंगा मैं भुला ||
यूँ मुहब्बत का सिला दूंगा उन्हें | न कभी कोई गिला दूंगा उन्हें || मैं यत्न करके मना लूँगा उन्हें ||
वो मेरे साँसों की, हर धड़कन में है | जो बसी रहती मेरे, तन-मन में है ||
मैं  उसे नाराज़ कर, सकता नहीं | उसके बिन परवाज़ कर सकता नहीं ||
साथ अपने मैं बिठा लूँगा उन्हें | इक नई दुनियाँ दिखा दूंगा उन्हें || मैं यत्न करके मना लूँगा उन्हें || शशि मेहरा , 

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