Sunday, August 19, 2012

Eid

कबूल मेरी दुआओं के फूल फरमाएं ।
ईद है आज, मुबारक काबुल फरमाएं ।। 'शशि' ईद मुबारक  

मौला उनको, ताकीद दी  जाये ।
मुझको ईदी में, दीद दी जाये ।। 'शशि'  ईद मुबारक  

ईद के दिन, उम्मीद रहती है ।
उनसे मिलने की, कम जो मिलते हैं ।। 'शशि' ईद मुबारक  

ईद आई है, आप भी आइये ।
ईद कब रोज़-रोज़, आती है ।। 'शशि' ईद मुबारक   

Wednesday, August 1, 2012

कलम से काम लेने लग गया हूँ |
जुबान जज्बों को देने लग गया हूँ ||
नहीं था, जिसके होने का यकीं कल |
सदाएं उसको देने लग गया हूँ ||
मैं अब तक ख्वाब मे ही जी रह था |
समय की ठोक्रों से जग गया हूँ ||
मुझे मुद्दत से अपनी होश न थी |
जो होश आय सम्भलने लग गया हूँ ||
मेरे अपने गिला करते हैं मुझसे |
मैं आपनो से उल्झने लग गया हूँ
'शशी' कहने से क्यूँ कतरा रहे हो |
ज़माने की, समझ मैं, रग़ गया हूँ || ' शशि मेहरा '

ग़मों के दौर में, जीने कि आरज़ू लेकर |
कहाँ-कहाँ न गये, 'शोर-ऐ-दिल' कि बू लेकर ||
था जिन पे नाज़. सहारा बनेंगे, मुश्किल में |
बहुत निराश हुआ, उनसे रु-ब-रु होकर ||
मिला न कोई खरीदार अपनी हस्ती का |
किया ज़मीर को, जखमीं है, आबरू खोकर ||
'शशि' न सीख, ज़माने से, बे-वफ़ा होना |
नहीं मिलेगा सुकूँ ,उस सा हू-ब-हू होकर ||   शशि मेहरा , 
 'शोर-ऐ-दिल' मेरी किताब का नाम है |
इसलिए अक्सर वो जाते रूठ हैं | मैं यत्न करके मना लूँगा उन्हें ||
पास अपने मैं बुला लूँगा उन्हें || अपने सीने से लगा लूँगा उन्हें ||
रूठते हैं मान जाने के लिए | दो घडी मुझको सताने के लिए ||
रूठते हैं इस कदर, जाता हूँ डर | खिलखिला उठते हैं मेरे हाल पर ||
सोचता हूँ मैं सजा दूंगा उन्हें | क्या मुहब्बत के सिवा दूंगा उन्हें || मैं यत्न करके मना लूँगा उन्हें ||
रूठना जिनका नहीं जाता सहा | उनसे बिछड़ा ग़र, जियूँगा किस तरह ||
मैं प्यालों को गले लूँगा लगा |उनको क्या, खुद को भी, दूंगा मैं भुला ||
यूँ मुहब्बत का सिला दूंगा उन्हें | न कभी कोई गिला दूंगा उन्हें || मैं यत्न करके मना लूँगा उन्हें ||
वो मेरे साँसों की, हर धड़कन में है | जो बसी रहती मेरे, तन-मन में है ||
मैं  उसे नाराज़ कर, सकता नहीं | उसके बिन परवाज़ कर सकता नहीं ||
साथ अपने मैं बिठा लूँगा उन्हें | इक नई दुनियाँ दिखा दूंगा उन्हें || मैं यत्न करके मना लूँगा उन्हें || शशि मेहरा ,