लोग हाथों कि लकीरों पे यकीं करते हैं |
जिसने हाथों पे यकीं रक्खा, सिकंदर निकला ||
जिसे यकीन हो खुद पर, कभी नहीं कहता |
बुरे नसीब कि बाईस , बुरा सफ़र निकला ||
नहीं नसीब हुआ, साया मुझको, अपनों का |
उनसे बहतर, मेरा हमदर्द, इक शज्र निकला ||
ता-उम्र जिसकी, खुदा जान के इबादत की |
वो नाखुदा भी नहीं, मुझसा ही बशर निकला ||
थी जिस से मिलने की, शिद्दत से आरजू दिल में |
'शशि' का था वो तख्ख्यल , वो हमसफ़र निकला ||
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