Wednesday, May 11, 2011

शोर-ए-दिल

म न जाने कब तेरी, महफ़िल से उठ जायेंगे अब |
फिर न जाने कब बनेगा, फिर से मिलने का सबब ||
क्यूँ बिछुड़ने की सजा, मिलती है अक्सर प्यार में |
क्यूँ लिखी है जीत  के संग, हार भी संसार में ||
कैसे-कैसे आदमी को, ख्वाब दिखलाता है रब्ब |
याद मत रखना कभी, हम भी तेरे हमराह थे |
वक़्त की साज़िश के सदके, हो गए गुमराह थे ||
हाल-ए-दिल नज़रों से मत, कहना अगर बोलें न लब | 
ज़िन्दगी शायद ही मौका दे, की हम फिर से मिलें  |
दूर होने चाहिए, इस वास्ते, शिकवे-गिले || 
मुस्करा के अलविदा कहना, 'शशि' से सब के सब | 

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