फलक को हम, ज़मीं कहते, ज़मीं को, आसमाँ कहते |
अगर इक दुसरे से ये, बदल कर के मकाँ रहते ||
अगर पानी पे चल पाना, कहीं मुमकिन यहाँ होता |
तो शायद कम ही कदमों के, बचे बाकी निशाँ रहते ||
अगर हम, ज़िन्दगी और मौत को, काबू में कर लेते |
यकीनन, न किताबों में, लफ्ज़ फानी-फ़ना रहते ||
शुक्र है की, खुदा खुद , आदमी बन कर, नहीं रहता |
हम अपने से, बशर को ही, भला क्यूँ कर, खुदा कहते ||
'शशि' शेयरों में, कह लेते हो, तुम भी चाँद, चेहरों को |
नज़र को किस तरह बिजली, ज़ुल्फ़ को तुम घटा कहते ||
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