Monday, July 4, 2011

शेयरों को अपने नाम से मनसूब कर लिया |
तालुक्क हमारे साथ, बहुत खूब कर लिया ||
इक शेयर में मैं, अपना खुदा उनको कह गया |
आये खुदा मिटा दिया, महबूब कर लिया ||

औरों को होंसला करो, कहता हूँ आजकल |
खुद होंसले की तक में, रहता हूँ आजकल ||
पत्थर की इक मीनार सा, दिन में रहूँ बना |
पानी की तरह रात को, बगता हूँ आज कल ||

इस दहर में, जो शख्स भी मगरूर हुआ है |
अपनों से क्या, खुद अपने से वो दूर हुआ है ||

तलवार के ज़ख्मों का, भरपाना तो मुमकिन है |
लग्जों से जो लगते हैं, वो ज़ख्म नहीं भरते ||
वादों को निभा पाना, आसान तो लगता है |
रस्ते के जो काँटे हैं, सस्ते में नहीं छँटते ||


लौटना मुमकिन नहीं है, जिस जगह से, हूँ वहाँ |
कुछ भी कह सकता नहीं, की है मेरी मंजिल कहाँ ||


अनजाने में अनजानों से, घुल-मिल जाता हूँ |
अनजानों के अनजानों से, मेल कराता हूँ ||
लफ्जे मुहब्बत में मैंने, तासीर जो पाई है |
बार-बार बातों-बातों में, उसे सुनाता हूँ ||











2 comments:

  1. अनजाने में अनजानों से, घुल-मिल जाता हूँ |
    अनजानों के अनजानों से, मेल कराता हूँ ||
    लफ्जे मुहब्बत में मैंने, तासीर जो पाई है |
    बार-बार बातों-बातों में, उसे सुनाता हूँ ||

    बहुत खूबसूरत प्रस्तुति है आपकी.
    एक एक लफ्ज दिल को छूता है.

    अनुपम अभिव्यक्ति के लिए आभार.
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.

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  2. वाह,क्या बात है.

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