Thursday, September 13, 2012



 शोर-ऐ-दिल 

माँ के आशीर्वाद से 
समर्पित, उनको, जिनके पास सिर्फ धडकने वाला ही
 नहीं बल्कि महसूस करने वाला दिल है |     'शशि'

ये आज़ादी नहीं तोहफा, शहीदों की अमानत है
लगा के जान की बाज़ी, हमें करनी हिफाज़त है || 

लेखक                     शशि मेहरा  
परिकल्पना              : रिशु मेहरा 
आवरण                   :अंकुश  मेहरा 
संस्करण                  :प्रथम, अगस्त 2006   

शोर-ऐ-दिल किसका है ये, इसका नहीं मुझको पता |
मैंने तो  इसको  लिखा है, बस  मेरी  इतनी  खता ||

शोर-ऐ-दिल क्या है, क्या बताऊँ  मैं |
पास बैठें तो कुछ,  सुनाऊँ मैं ||

शोर-ऐ-दिल को लिबास दे डाला |
एक अंदाज़ ख़ास दे डाला ||
शोर-ऐ-दिल, शोर अब नहीं लगता |
शोख रंग-ऐ-एहसास दे डाला ||

मैं लिखने के बहाने ढूँढता हूँ |
मैं लफ़्ज़ों में तराने ढूँढता हूँ ||
नहीं मुमकिन है, जिनका लौट आना |
मैं वो गुजरे ज़माने ढूँढता हूँ ||

रोने के बहाने, मत ढूंढो |
कुछ हसने की तदबीर करो |
हाथों की लकीरें मत देखो |
ख़ुद किस्मत को तहरीर करो ||

देखीं लकीरें हाथ कीं तो, दंग रह गया |
सूरत मेरी का साफ़ था, खाका बना हुआ ||

मेरे नाम कर दिया है, संतोष का खजाना |
इससे हसीन तोहफा, भला दे भी क्या ज़माना ||
लिखने को इक तराना, मुझे मिल गया बहाना |
अपने नसीब पर मुझे, हो गरूर क्यूँ ना   | 

तुम्हें लेकर मेरे दिल ने, कई ताने हैं बुन डाले |
तुम्हारे वास्ते, लाखों हसीं गुल मैंने चुन डाले |\
अब अपने अक्स को, कैसे रक्खूँ कायम, ये तुम सोचो |
वगर्ना डर है, की इस ज़िन्दगी को, खा ही घुन डाले ||  

लिया सब अपने खाते में, दिया सब मेरे खर्चे में |
वो अक्सर कर ही जाती है, घर-खर्चे के पर्चे में || 

वो बेवफा के नाम से, बदनाम हो गया |
जो चाह के भी ख़ुश न, जमाने को कर सका

देर तक जागा हुआ हूँ, रात भर रोया हूँ मैं |
सुबह के पहले पहर, जाकर कहीं सोया हूँ मैं || 
ढूँढता-फिरता हूँ ख़ुद को, आजकल मैं रात-दिन |
याद कुछ आता नहीं है, कब, कहाँ खोया हूँ मैं ||  

मैं चौराहे पे हूँ, और हूँ परेशाँ |
मुझे गुमराह रस्ते कर रहे हैं ||
न जाने क्यूँ हर इक मंजिल की जानिब |
कदम उठने से मेरे डर रहे हैं ||

यकीं नहीं है मगर ये गुमान होता है |
वहीं खड़ा हूँ,कभी जिस जगह से, भटका था ||

गिरह कैसी हो, खोल लेता हूँ |
गम ख़ुशी दे के, मोल लेता हूँ ||
अब ये आदत है, बन गयी मेरी |
बोल होंठों पे, तोल लेता हूँ ||

दर्द से सब ही, खौफ खाते हैं |
दर्द कब सबके, हिस्से आते हैं ||
दर्द हमदर्द से भी, बहतर हैं |
दर्द ही, हौंसले बढाते हैं ||

बात जब भी चली है, सपनों  की |
याद आई है, मुझको अपनों की ||

ख़ुद को ख़ुद से, छुपाना, मुश्किल है |
झूठ को सच्च, बनाना मुश्किल है ||
भूल जाना, बुरा नहीं लेकिन |
चाह के भूल पाना, मुश्किल है ||

साथ कब कौन, किसके चलता है |
वक़्त के साथ, सब बदलता है ||
रिश्ते-नाते हैं, इस तरह जैसे |
आस्तीनों में, साँप हो जैसे ||

अगर ख़ुद को, नहीं पहचानते  हो |
तो फिर किसको, यहाँ पहचानते हो ||

उस बेवफा के ज़िक्र से, राहत मिले अजीब |
उसे  भूलना मुनासिब, शायद अभी नहीं है ||

सफर काफी अभी बाकी है, यूँ महसूस होता है |
खुदा कुछ कर, मेरी मंजिल, फक्त दो गाम हो जाये ||

जो कपड़ा उनके तन का, पेहरन था |
वही  कपड़ा बना, मेरा कफन था ||
मैं पहने था तो, मेरे घर था मातम |
वो पहने थे तो, उनके घर जश्न था ||

फिर मिलेंगे, यही कहकर, जुदा हुए हम थे |
हमने  इक-दुसरे के आँख, देखे पुरनम थे ||
बने   रहे वो अजनबी, मिले जो मजबूरन |
हमारे  बीच में, हालांकि फासले कम थे ||

हर दिन नये बरस का, हर इक का हो सुहाना |
जब भी मनाओ ख़ुशियाँ, अपने न भूल जाना ||

पनपता प्यार जब,पहला है दिल में |
कहीं लगता नहीं फिर, दिल अस्ल में ||
पहेली सी लगे है, तब जवानी |
तलाश-ऐ-यार रहती, हर शक्ल में ||

मुझे जीने के, काबिल यार कर दो |
इशारों से ही, ज़ाहिर प्यार कर दो ||
मैं उकता सा गया हूँ, जिंदगी से |
मेरी वीरानियाँ, गुलज़ार कर दो ||

जब दगा, दोस्तों से, मिलता है |
पूछ मत, दिल पे क्या गुजरता है ||

आँखें, आँखों सी, अब नहीं लगतीं |
बदली-बदली सी, इनकी सूरत है ||
इनको चेहरे पे हूँ, सजाये हुए |
क्यूंकि, आँखें मेरी, जरूरत हैं ||

दिल, मैं इस दिल को, कह नहीं सकता |
ये मेरे ज़हन से ही डरता है |
इस में अब धडकनें नहीं रहतीं |
हो के, मजबूर ये धडकता है ||

जिस बात का, लोगों को गिला, हमसे रहा है |
उस बात पे,मजबूर भी, लोगों ने किया है ||

जब कभी हम फ़साना कहते हैं |
लोग हमको दीवाना कहते हैं ||
'शोर-ऐ-दिल' जब ब्यान होता है |
लोग दिलकश, तराना कहते हैं ||

न जाने क्यूँ मैं, लिखता जा रहा हूँ |
मैं न तो ख़ुश हूँ, न पछता रहा हूँ ||
मुझे लगता है, कि लिख-लिख के शायद |
मैं अपने आप को भला रहा हूँ ||

जिंदगी को मैं, समझता गीत हूँ |
हर लफ्ज़ में, ढूँढता संगीत हूँ ||

इतना कहना है, अपने बारे में |
आप लोगों की, तरह रहता हूँ |
मुझको महसूस, जो भी होता है |
उसको लिख के, हमेशां कहता हूँ ||

है ये दावा कि, हम मुहब्बत में |
कोई भी, इम्तहान दे देंगे ||
माँग के तुम, मजाक में देखो |
हम ख़ुशी से, ये जान दे देंगे || 

सच बोलने का जिसने मुझे, होंसला दिया |
अन्दर है मेरे, शख्स वो, मैं मगर नहीं ||  

उम्मीदों के सहारे, जी रहा हूँ |
मैं अपने अश्क सारे, पी रहा हूँ ||
सिर्फ दामन नहीं, मैं दिल भी अपना |
ज़माने से छुपा के, सी रहा हूँ || 

इतना आगे आ चुका हूँ, लौटना मुमकिन नहीं |
किस जगह से था चला, सोचना मुमकिन नहीं ||
अब तो लगता है कि, चलना ही मुक्कदर बन गया
अब सफर को, रास्ते में, छोड़ना मुमकिन नहीं ||

पुलों के आसरे ले के, यहाँ तक हैं चले आये |
मगर अफ़सोस कि ख़ुद जिंदगी में, पुल न बन पाए ||

वो मेरे पास जाने क्यूँ, दबे पाँव से आते हैं |
यही अंदाज़ हैं उनके, जो मेरा दिल लुभाते हैं ||
वो जब पहलू बदलते हैं, कभी बातों ही बातों में |
मुझे  महसूस होता है, कि वो कुछ कहना चाहते हैं ||
इरादा जब भी करता हूँ, मैं हाल-ऐ-दिल सुनाने का |
वो उठ के चल ही देते हैं, वो शायद भाँप जाते हैं ||
उम्मीदें ही मुहब्बत को, कभी मरने नहीं देतीं |
न मैं सेहरा सजाता हूँ, न वो मेहँदी रचाते हैं ||
हमारा हाल दरिया के, किनारों सा ही लगता है |
'शशि' जो साथ तो चलते है, लेकिन मिल न पाते हैं ||

नई अदा से, मुहब्बत जता रहा है कोई |
उन्हीं से उनके लिए, खत लिखा रहा है कोई ||
कहा गया न ज़ुबां से, जो रूबरू उनके |
बिठा के पास उन्हें, सब सुना रहा है कोई ||
वो पूछते भी हैं, रह-रह के उसके बारे में |
अदा से नाम उन्हीं का, बता रहा है कोई || 
हसद जबीं पे नुमाँया है, दिल में क्या जाने |
उन्हें यूँ कहूँ के आँसू, रुला रहा है कोई ||
मिलेगा खत तो वो, ख़ुश होंगे या खफा होंगे |
नसीब अपना 'शशि', आज़मा रहा है कोई || 

बात इतनी समझ में आई है |
झूठ ही आजकल सच्चाई है ||
सब में जलवा-नुमाँ, ख़ुद ख़ुद है |
दहर है ये जगह, खुदाई है ||
हया, वफा हैं किताबों में, इसलिए हर सू |
बे-हयाई है, बे-वफाई है ||
दावा बेकार है, किसी शेय पर |
सोच तक यहाँ, पराई है ||
जाँचना मत, जहान में रिश्ते |
जिसने जांचे हैं, चोट खाई है ||
खेल जारी है, जिंदगानी है |
जीत हारी है, मात पाई है ||

रहूँ तन्हा, सजा जिस उम्र में, मुझको सुनाई है |
हकीकत है, ये तन्हाई, मुझे न रास आई है || 
मुझे था इल्म, साँसों का, सफ़र तन्हा है, तय करना |
मेरे रहबर ने, मुझको याद इसकी, अब दिलाई है ||
मैं अपनों में भी तन्हा था, परेशानी के आलम में |
सिर्फ तन्हा नहीं हूँ, साथ मेरे, अब जुदाई है ||
यत्न से या बहाने से, मैं दिन तो काट लेता हूँ |
मगर दिल बैठने लगता है, जब भी शाम आई है ||
'शशि' अब ज़िक्रे तन्हाई, जुदाई, ऐब लगता है ||
तेरी किस्मत में थी मुश्किल, जो तेरे पेश आई है ||

हमसफर, हमराह, हमदम, आप बन पाये नहीं |
क्या हुआ, आने का कहकर, आप फिर आये नहीं ||
नींद गर आती तो शायद, आप आते ख्वाब में |
लाख  चाहा, फिर भी खुद को, हम सुला पाये नहीं ||
दिल गँवाया, चैन खोया, है तुम्हारे इश्क में |
आज  तक, लेकिन कभी हम, फिर भी, पछताये नहीं || 
आपकी आँखों को बस, देखा ही था, चूमा न था |
आज तक, उसका नशा है, होश में आये नहीं ||
दामन-ऐ-दिल अपना हमने, होते देखा तार-तार |
आपकी खुशियों की खातिर, कुछ भी कह पाये नहीं ||
हमदम नहीं तो न सही, वो हमकदम तो है |
हमको वफा का उससे, अभी तक भ्रम तो है ||
दामन  उम्मीद का नहीं, चाहूँ मैं छोड़ना |
उम्मीद कम है कम सही, उम्मीद कम तो है ||
दीवाना कर गयी है मुझे, जिसकी हर अदा |
उसको खबर नहीं है, मुझे इसका गम तो है ||
शायद हूँ खुशनसीब मैं, हालांकि ख़ुश नहीं |
लब खुश्क हैं तो क्या हुआ, मेरी आँख नम तो है ||

मेरे हाल पे, मुस्कुरा देने वालो  |
ये किसने किया है, तुम्हें कुछ पता है ||
खुदा के बनाये, बुतों में से थे वो |
मैं समझा था, मेरे लिए वो खुदा है ||
ख़ुशी छीन मेरी, वो इतरा रहे हैं |
हाँ  उनकी तरफ से, मुझे गम अता हैं ||
वो तोहमत लगाते रहे, वक्त-ऐ-रुखसत |
मैं खामोश था, बस मेरी ये खता है ||
वो कुछ दूर जाकर, जो पलटे मैं समझा |
वो रूठे नहीं हैं, ये उनकी अदा है ||
मेरे आंसुओ, मेरी आँखों में रहना |
तुम्हारे बिना, जिंदगी बेमज़ा है ||
रवानी नब्ज़ की, या रब रोक दे अब |
'शशि' कर रहा, दिल से इतनी दुआ है || 

जो मुझे परदेस में, अपनों से भी बढ़कर लगा |
वो न जाने, क्यूँ जहाँ को, राह का पत्थर लगा ||
यूँ लगा, जैसे मैं अपने आप से, हूँ  मिल रहा |
मेरे दिल को इस तरह , उससे गले मिलकर लगा ||
उसने अपनी दास्ताँ, कह के जो लम्बी साँस ली |
राह का पत्थर नहीं, वो मील का पत्थर लगा ||
बातों-बातों में,ज़मीं पर, सो गये जो रात को |
अर्श  इक चादर लगा, और फर्श इक बिस्तर लगा ||
सुबह-सुबह वो मेरे, हक़ में दुआ था कर रहा |
शक्ल में इन्सान की, वो तो मुझे रहबर लगा ||  
वक्त-ऐ-रुखसत, होंठ उसके,फडफडा के रह गये |
वो 'शशि' को तो फरिश्तों से, बहुत बहतर लगा ||

आईने को हम हमेशा, दोस्त थे समझा किए |
आईने ने जिंदगी में, जब दिये धोखे दिये ||
आईने से ही थे कहते, जब भी दिल था टूटता |
आईने ने हमको समझा, फिर नये नुस्खे दिये ||
आज तक समझे नहीं हम, आईने की चाल को |
जब भी नाकामी मिली, तकदीर से शिकवे किए ||
आईने के रु-ब-रु, होना अक्लमंदी नहीं |
आईने ने अक्ल पर, लगवा सदा पहरे दिये ||
डालना न आईने की, आँख में आँखें 'शशि' |
आज तक मायूस लाखों, आईने ने हैं किए ||

कोई आहट हो, पत्ते की तरह, दिल काँप जाता है
मुझे अब काट तन्हाई का, अक्सर साँप जाता है ||
मेरा दिल आजकल मुझ पे, भरोसा ही नहीं करता |
ये मेरी बात का, फौरन सबब अब, भाँप जाता है ||
नहीं ताकत रही बाकी, सफर की अब तस्सवुर में |
सफर तो क्या,ये अब, ज़िक्र-ऐ-सफर से हाँफ जाता है ||
ये  तन्हाई, मुकद्दर तो नहीं, दिल भूल जाता है |
न जाने सोच के क्या-क्या, ये घबरा आप जाता है ||
असर तन्हाई का, तारों के रहते, कम ही रहता है |
है सूरज जो, 'शशि' को, सुबह आकर ढाँप जाता है ||

बात न मान कर, सयाने की |
आ गये चाल में, जमाने की ||
बसा हुआ है, इसे लोग, शहर कहते हैं |
यद् आती है, इसे देख के, वीराने की ||
गौर से देखो, यहाँ हँसते हुए, चेहरों को |
हँसी नकल सी लगे है, किसी दीवाने की ||
यहाँ तो अपने भी, अपनों से, ऐसे मिलते हैं |
हो जैसे, रस्म यहाँ, मिल के, भूल जाने की ||
'शशि' न ज़िक्र-ऐ-वफा, भूल के यहाँ करना |
सजा मिलेगी, लबों पे, ये बात लाने की ||

शोख तुम, शोखियों से, ज्यादा हो |
कत्ल-ओ-गारत पे, क्यूँ आमादा हो ||
न उलझना, जहाँ की, नज़रों से |
गर तुम्हारा, यही इरादा हो ||
उससे नुक्सान, हो भी सकता है |
जिससे तुम, सोचते हो फायदा हो ||
दुनियाँ-दारी के कुछ, तकाज़े हैं
भूलना मत जहाँ जो, कायदा हो ||
फूल को फूल, सब कहेंगे 'शशि' |
वो हो रंगीन, चाहे सादा हो ||

फिर तेरे दर पे, सदा दे के, चला आया हूँ |
मुझ पे, जो फर्ज़ था लाज़िम, वो निभा आया हूँ
तेरी यादों का, मेरे सर जो, कर्ज़ था बाकी |
आज लगता है मैं, वो कर्ज़ चुका आया हूँ ||
भूल कर भी नहीं भुला हूँ, तेरे रहम-ओ-सित्म |
'शोर-ऐ-दिल' अपने खुदा को, मैं सुना आया हूँ ||
आज-तक दिल में, वही दर्द वही उल्फत है |
बाद दो दश्क मैं, हालांकि यहाँ आया हूँ ||
जो भी होता है, 'शशि' ठीक यहाँ होता है |
अश्क बाकी थे जो आँखों में, बहा आया हूँ ||

नाहक तुम्हें भुलाने का, दावा था कर रहा |
दिल छुप के तेरी याद में, आहें था भर रहा ||
आँखें न भूलीं देखना, तेरे घर की खिड़कियाँ |
तेरी गली से जब था, अचानक गुजर रहा ||
आंखों को तेरी दीद की, शिद्दत से प्यास थी |
सीने में दिल अजीब सा, था शोर कर रहा ||
दीवानगी  थी ढूंढना, मुद्दत के बाद भी |
तुझको वहां, जो था कभी, तेरा पीहर रहा ||
था तेरी रहगुजर से, 'शशि' बा-उम्मीद  पर |
उस रहगुजर से क्या, न जहाँ तेरा घर रहा ||

हो के हालात से, मजबूर यहाँ आया हूँ |
देखने अपने मैं, कदमों के, निशाँ आया हूँ ||
न ही चाहा था, न सोचा था, यहाँ आने का |
साथ मैं वक्त की, लहरों से, बहा आया हूँ ||
आपको  देख के हैराँ, मुझे हैरत क्यूँ हो |
आपको जब्कि मैं, ख़ुद करने, हैराँ आया हूँ ||
जैसा माझी था मेरा, हाल भी कुछ वैसा है |
मैं जहाँ से था चला, लौट वहां आया हूँ ||

ख़ुद को ख़ुद, बहला लेता हूँ |
अपना काम चला लेता हूँ ||
ज़ख्म तो क्या, नासूर भी दिल के |
प्यार से मैं, सहला लेता हूँ ||
अपना काम चला लेता हूँ ||
भूलीं बिसरी यादों को मैं |
अपने पास बुला लेता हूँ ||
अपना काम चला लेता हूँ ||
हँस कर आँखों के, अश्कों को|
पलकों बीच, छुपा लेता हूँ ||
अपना काम चला लेता हूँ || 
देख के अपनी हालत ख़ुद ही |
अपने पे मुस्का लेता हूँ ||
अपना काम चला लेता हूँ ||
खाकर चोट 'शशि' कहता है |
नग्मा एक बना लेता हूँ ||
अपना काम चला लेता हूँ ||

मुझे खा रहा, ये ख्याल है
है ये हिज्र-ऐ-गम, या विसाल है ||
इस कशमकश, में है जिंदगी |
क्या जवाब है, क्या सवाल है || 
मुझे चाहियें, तन्हाईयाँ |    
दिल  बोझ-ऐ-गम से, निढाल है ||
मुझे  इस जहाँ ने, वफा न दी |
मेरे दिल को इसका, मलाल है ||
सब अपनी-अपनी, फ़िक्र में हैं |
यहाँ साँस लेना, मुहाल है ||
'शशि' तू तो काट न पायेगा |
ये जो जिंदगी का, जंज़ाल है ||

मैं रोकता ही रहा, उसने बेच डाला ज़मीर |
वो भूल बैठा था, इंसानियत की, हर तासीर ||
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जब भी गिरता है तो, गिरता ही चला जाता है |
खूब ये दौर भी, इन्सां पे, कभी आता है ||
गिरने वाले को नदामत का तो, होता है एहसास |
सामने सबके, वो फिर भी नहीं, पछताता है ||
भूल जाता है, वो करते हुए, संगीन गुनाह |
हर कोई, अपने किए की तो, सजा पाता है ||
ज़ख़्मी रूह आह न देगी, तो भला क्या देगी |
उसका हमदर्द भी, उसको नहीं, समझाता है ||
शर्म   शायद उसे, आ जाये 'शशि' पढ़-सुन के |
कुछ भी कोई साथ, जहाँ से, नहीं ले जाता है ||

खूब मुन्सफ़ ने, मुन्सफ़ी की है |
आज इन्साफ को, सजा दी है ||
फैसला पहले तय था, लगता है |
सिर्फ नाटक की ही, मदद ली है ||
उसकी मजबूरियाँ, रहीं होंगी |
उसने जो होश में, खता की है ||
होश्यारी या, बेख्याली में |
उसने इख्लाक से, ज़फ़ा की है ||
हक की बातों में, कुछ नहीं रखा |
बात ये कर के सच,दिखा दी है ||
भूल मेरी थी, भूल बैठा था |
सारी दुनिया नहीं, 'शशि' सी है ||  

आदमी आस में ही, जीता है |
वरना ये जिंदगी, फजीता है ||
एक है रूप, नाम दो जिसके |
एक मरियम है, एक सीता है ||
एक है ज्ञान, पर किताबें दो |
एक बाईबल है, एक गीता है || 
वो बहुत बा-कमाल का होगा |
दूसरों के लिए, जो जीता है ||
जिंदगी हारने, जो निकला है |
जिंदगी  को उसी ने, जीता है ||
'शशि' रहता, नशे में है लेकिन
मय नहीं पीता, अश्क पीता है ||

तेरी हर अदा ने मुझको, धोखे दिये वफा के |
तुझे क्या मिलेगा ज़ालिम, मुझे इस तरह, मिटा के ||
अपनी तू जिस अदा से, धोखा है सबको देती |
हासिल न कुछ भी होगा, बदले में उस अदा के ||
माना तेरी अदा में, जादू छुपा बला का |
पछताएगी तू दांतों में, उंगलियाँ चबा के ||
शिकवा  करोगी किससे, गैरों की तुम जफा का |
रखोगी  दिल के टुकड़े, अपने कहाँ सजा के ||
आदत को अपनी बदलो, अभी वक्त है संभल लो |
अच्छा 'शशि' लगेगा, देखो करीब आ के ||

तेरी हर अदा में मुझको, आई वफा नजर है |
अपने नसीब पर तो, मुझे हो रहा फख्र है ||
सादा ख्याल तेरे, तेरी सादगी अदा है |
तू मेरी जिंदगी है, मेरे दिल में तेरा घर है ||
देखो न तोड़ देना, मेरे दिल के आईने को |
उसे क्या दिखा सकूंगा, मेरे पास जो नजर है ||
है हसीं मेरा मुकद्दर, तेरा साथ है मयस्सर
नहीं अब फ़िक्र सफर की, जो तू मेरी हमसफर है ||
कल तक 'शशि' को न थी, उम्मीद जिंदगी से |
पर आज उसको देखो, वो कितना बेफिक्र है ||

अनोखा घर, बनाना चाहता हूँ |
तेरे दिल में, ठिकाना चाहता हूँ ||
तुम्हारे नाम से, वाकिफ नहीं हूँ |
तुम्हारा साथ, पाना चाहता हूँ ||
सकून-ऐ-दिल जो दे सकता है मुझको |
मैं वो, मौसम सुहाना, चाहता हूँ ||
तेरी मयकश नजर से, अपने दिल को |
मैं इक कतरा, पिलाना चाहता हूँ ||
तुम्हारा साथ मेरी, जिंदगी है |
मैं जीने का बहाना, चाहता हूँ ||
मुहब्बत की 'शशि' कीमत नहीं है |
मैं साबित कर, दिखाना चाहता हूँ || 

धोखे ही धोखे इश्क में, हालांकि खाये हैं |
अब तक न शौके इश्क से, हम बाज़ आये हैं ||
माना   मिली शिकस्त है, हर बार ही हमें |
हर बार हमने, जीत के, सपने सजाये हैं ||
शिकवा  नहीं किया है, किसी से जहान में |
खा के फरेब इश्क में, हम मुस्कराये हैं || 
सब कुछ लुटा के हमने, वफा की तलाश में |
रंज-ओ-मलाल दिल का, लबों तक न लायें हैं ||
हर इक 'शशि को देख के, हैरत से यह कहे |
हद है खुदा ने, ऐसे भी, इन्सां बनाये हैं ||

मैं शौक-ऐ-मुहब्बत से बाज़ आ गया हूँ |
ऐ साकी तेरे पास, आज आ गया हूँ ||
गलत है मुहब्बत, मुहब्बत से मिलती |
समझ के जहाँ से, ये राज़ आ गया हूँ ||
फरेबी धुनें जो थे, मुझको सुनाते |
मैं सब तोड़ कर के, वो साज़ आ गया हूँ ||
सुना है सकूँ बस यहीं पर है मिलता |
तेरे  दर पे बन्दा-नवाज़ आ गया हूँ ||
'शशि' तुम निभाते रहो, रस्म-ऐ-उल्फत |
भुला के मैं, रस्म-ओ-रिवाज़, आ गया हूँ || 

मुझे जीने का ज़रिया, मिल गया है |
मुझे उल्फत का दरिया, मिल गया है ||
कहीं भी मैं नहीं, तन्हा गया हूँ |
हमेशा साथ मेरे, दिल गया है ||
तेरे चर्चों की कोशिश, जब भी की है |
मेरे होंठों को कोई, सिल गया है ||
ताज्जुब है की तुम, गुजरो जहाँ से |
हर इक कहता कि, वो कातिल गया है ||
'शशि' दुनियाँ बदलती, जा रही है |
तू किस माहौल में, घुल-मिल गया है ||

मुझपे बंदिश, लगा नहीं सकते |
ख़ुद में जुम्बिश, जो ला नहीं सकते ||
गीत गैरों के, गाते रहते हो |
अपना कुछ भी, सुना नहीं सकते ||
ख़ाक वो खेलते हैं, लफ्जों से |
एक नग्मा बना नहीं सकते ||
दूसरों से उम्मीद रखते हैं |
हाथ से कुछ, गँवा नहीं सकते है ||
याद रखना, 'शशि का दावा है |
वो कभी कुछ भी, पा नहीं सकते ||

दिल में अपने न, कुछ छुपाओ तुम |
दूसरों को भी, कुछ बताओ तुम ||
दर्द घटता ही है, सुनाने से |
ऐसे नुस्खे को, आजमाओ तुम ||
बोझ दिल पर, भला नहीं होता |
डर है इससे ही, दब न जाओ तुम ||
जिंदगी फिर कभी, नहीं मिलनी |
इसको बेकार मत, गंवाओ तुम ||
कुछ  तो अपनी खो, 'शशि' हमसे |
दूसरों की ही मत, सुनाओ तुम ||

बदले में वफाओं के, वफा ढूंढ रहे हो |
नादान हो पहले सी, फिजा ढूंढ रहे हो ||
रह-रह के जो, पीछे की तरफ, देख रहे हो |
क्या अपने ही, पाँव के, निशाँ, देख रहे हो || 
सूरत से ही, ज़ाहिर है, तुम अपनी हकीकत को |
न जाने कहाँ रख के, कहाँ ढूंढ रहे हो ||
अलफ़ाज़ के मरहम से, आराम नहीं मिलता |
तुम अपने लिए कैसी, दवा ढूंढ रहे हो ||
न जाने 'शशि' से क्यूँ, कोई भी नहीं कहता |
क्यूँ आज के लोगों में, हया ढूंढ रहे हो ||

जो मुझे जिंदगी, सा लगता है |
वो मुझे कब, किसी सा लगता है ||
एक अर्से से साथ हूँ जिसके |
कभी-कभी वो मुझे, अजनबी सा लगता है ||
लोग जिसको, मसीहा कहते हैं |
वो मुझे आदमी सा, लगता है ||
वो आफ़ताब है, पानी में अक्स भी जिसका |
चाँद की, चाँदनी सा लगता है ||
भुला न पाऊं मैं, वो एक पल मुहब्बत का |
जो    मुझे इक सदी सा, लगता है ||
कैसी आहट हो, वो नहीं खुलता |
उसका दिल, बंद गली सा, लगता है ||
मेरे ख़्वाबों का है जो, शाहजादा |
उसका चेहरा, 'शशि' सा, लगता है || 

जो मुझे, माहजबीं सी लगती है |
वो नहीं, इस ज़मीं की लगती है ||
जिसका किस्सों में, ज़िक्र आता है |
वो मुझे उस, हसीं सी लगती है ||
ज़ुल्फ़ बिखरे तो, रात होती है |
ज़ुल्फ़ सँवरे, सहर सी लगती है ||
उसकी आँखों से, मय छलकती है |
देख कर, तिश्नगी सी लगती है ||
जिसका चेहरा, किताबी चेहरा है |
वो खुदा के,सबक सी लगती है ||
लब हिलाए तो, फूल झड़ते हैं |
वो मुकम्मल, चमन सी लगती है ||
इक कयामत से, कम नहीं लगती |
बन सँवर के वो, जब निकलती है ||
जब मुक़ाबिल 'शशि' के आएगी |
देखना, किस तरह, बदलती है ||

ख़ुद को ख़ुद, उलझनों में डाला है |
अपना अंदाज़ ही, निराला है ||
आँख रह-रह के जो, फडकती है |
कुछ न कुछ, जल्द होने वाला है ||
रात  कली है, डर नहीं लगता |
अपना तो, रात-दिन ही, काला है ||
लब हिलाने की न इजाज़त है |
ऐसा गैरत ने डाला, ताला है ||
मुश्किलें, मुश्किलें नहीं लगतीं |
मुश्किलों ने 'शशि' को, पाला है ||

जिसको चुरा के, दिल को, हुआ तो गरूर था |
नीलम नहीं था, काँच वो, नीला जरुर था ||
इस हादसे ने मुझको, इतना बता दिया |
दावा मेरा फ़िज़ूल था, दावा जरुर था ||
अपना ही इम्तहान, अचानक मैं, ले गया |
खोट- खरे में फर्क का, वैसे शऊर था |
जाहिर में कुछ नहीं थी, कहता की कोई वजह |
नजरें फरेब खा गई,मैं बेकसूर था ||
गो  मुस्कुरा रहा था, 'शशि' भी शिकस्त पर |
इक कोर उसकी आँख का, गीला जरुर था ||

मैं लिखता हूँ, लगता है, उसको गिला है |
खफा वो लगा, जब भी, मुझसे मिला है ||
इशारों से मुझ को, बताता है वो |
हश्र प्यार का भी, जताता है वो ||
वो महबूब मेरे को, कहता बला है |
खफा वो लगा, जब भी, मुझसे मिला है ||
उसे यार मेरे, क्यूँ कर जलन है |
खुदा जाने कैसा है, जो उसका मन है ||
नहीं मानता वो, कि लिखना कला है || 
खफा वो लगा, जब भी, मुझसे मिला है ||
वो करता है दावा, वो खूब उसको जाने |
वो पत्थर से ज्यादा, नहीं उसको माने ||
'शशि' को हर इक लफ्ज़, उसका खला है
खफा वो लगा, जब भी, मुझसे मिला है ||

आते-आते बेवफा का, ज़िक्र लब पे, रह गया |
मुझको कहना और कुछ था, और कुछ मैं कह गया || 
बेवफा निकला था मुँह से, मुँह मेरा तकने लगे |
शर्म से गर्दन झुका ली, बज्म से उठने लगे ||
मैंने बदली बात, रुख उनका, बदल के रह गया
मुझको कहना और कुछ था, और कुछ मैं कह गया || 
रु-ब-रु उनके था मैं, और वो थे मेरे रु-ब-रु |
शर्त थी आँखों ही आँखों, से करेंगे गुफ्तगू ||
आँख मिलते उनसे मेरा, दिल धडक के रह गया ||
मुझको कहना और कुछ था, और कुछ मैं कह गया || 
उनको खो के ख़ुश नहीं मैं, वो हैं ख़ुश, लगता नहीं |
मेरी तरह उनको भी, शायद कोई जँचता नहीं ||
था  'शशि' सागर उफनता, लहर बन के रह गया |
मुझको कहना और कुछ था, और कुछ मैं कह गया ||

वो  भला है तो, वो बुरा भी है |
उसमें इक शख्स, दूसरा भी है ||
वो  नहीं जानता, कि वो क्या है |
वो  है खोटा, तो वो खरा भी है ||
वो भी मौसम के, साथ चलता है |
कभी सूखा, कभी हरा भी है ||
वो है कमज़ोर, पर बहादुर है |
वो डरता भी है, डरा भी है ||
अपने बारे में, ये बताता है |
कभी डूबा, कभी तरा भी है ||
आम लोगों कि तरह, वो भी 'शशि' |
कभी जिया, कभी मरा भी है ||

हाल-ऐ-दिल तुम बता नहीं सकते |
प्यार अपना जता नहीं सकते ||
जानता हूँ कि तुम अकेले में |
रो तो सकते हो. गा नहीं सकते ||
लाख तुम, मुस्कराओ महफिल में |
हालते - दिल छुपा नहीं सकते ||
कितने भी मरहलों को, सर कर लो |
मंजिल-ऐ-इश्क पा नहीं सकते ||
तौबा कर लो, 'शशि' की राय में |
क्यूंकि तुम कुछ, गँवा नहीं सकते ||

उसकी बातों में तुम, न आ जाना |
वो सयाना है, न कि दीवाना ||
दुनिया  देखी है, पास से मैंने |
अपने अंदाज़ खास से मैंने ||
देखना मत फरेब खा जाना |
उसकी बातों में तुम, न आ जाना |
वो तो भँवरे कि, जात वाला है |
तन का उजला है, मन का काला है ||
जिसने तुम पर, निशाना है ताना |
उसकी बातों में तुम, न आ जाना ||
हम में गो दूर का ही, नाता है |
हक 'शशि' को, ये फिर भी जाता है ||
तुमको भी, होशियार कर जाना |
उसकी बातों में तुम, न आ जाना ||

मुझको फिर आजमा के, देखो तुम |
तीर कोई चला के, देखो तुम ||
चोट खाने पे, दर्द होता है |
इश्क में चोट कहा के,देखो तुम ||
दिल लगाना, बुरा नहीं होता |
दिल किसी से, लगा के देखो तुम ||
दिल जला कर , उजाला करते हैं |
रात को पास आ के, देखो तुम ||
भूल जाना 'शशि' नहीं आसाँ |
बीती बातें, भुला के देखो तुम ||

बेवफाई कभी न, कर जाना |
उससे बहतर तो है, की मर जाना ||
दुनियाँ बातें, बनती रहती है |
इसकी बातों से, तुम न डर जाना ||
मैंने दिल को, सजा के रखा है |
तुम किसी और के, न घर जाना ||
काम मुश्किल नहीं है, आसाँ है |
इश्क का दरिया, पर कर जाना ||
रह-ऐ-उल्फत में, जाँ गंवा के 'शशि' |
बावफ़ाओं में नाम कर जाना ||

फ़लक को हम ज़मीं कहते, जमीं को आस्मां  कहते |
अगर इक दुसरे से ये, बदल करके , मकाँ रहते || 
अगर पानी पे चल पाना, कभी मुमकिन यहाँ होता |
तो शायद कम ही कदमों के, बचे बाकी निशाँ रहते ||
अगर हम जिंदगी और मौत को, काबू में कर लेते |
यक़ीनन न किताबों में, लफ्ज़ फ़ानी, फ़ना रहते ||
शुक्र है कि, खुदा ख़ुद आदमी, बन कर नहीं रहता |
हम अपने से बशर को ही, भला क्यूँकर खुदा कहते ||  
'शशि' शेयरों में कह लेते हो, तुम भी चाँद चेहरों को |
नज़र को किस तरह बिजली, ज़ुल्फ़ को तुम घटा कहते ||

न जाने क्यूँ मुझे, पूरा यकीं है |
कोई दोज़ख़,कोई जन्नत नहीं है ||
जहाँ से सब हुए, जन्नत-नशीं है |
तो अब जन्नत कहाँ, जन्नत रही है ||
जहन्नुम और जन्नत, ये जमीं है |
कहीं भी दूसरी, दुनियाँ नहीं है ||    
अगर सुख हो, तो ये दुनियाँ हसीं है |
गम-ऐ-दौराँ में, कुछ जँचता नहीं है ||
मिलो बेठो, हंसो सब से, जहाँ में |
ये मौका फिर कभी, मिलना नहीं है ||
नहीं नफ़रत के काबिल, कुछ जहाँ में |
मुहब्बत ज़िंदगी है, बन्दगी है ||
;शशि' खिदमत करो, खल्क-ऐ-खुदा कि |
तुम्हें ये ज़िंदगी, नेमत मिली है ||

ज़िंदगी की, अपनी इक, रफ्तार है |
जिसमें कोई भी, दखल, बेकार है ||
हर कोई, मिलता यहाँ, मुश्किल में है |
वक्त के , हाथों मगर, लाचार है ||
कल कभी, आना नहीं, फिर भी सभी |
कल की खातीर, हो रहे, बेज़ार हैं ||
बन रहा है, आज का, बन्दा ख़ुदा |
आदमी बनना मगर, दुश्वार है ||
सच है ये, की है, सराय ये जहाँ |
आदमी, जिस में, किरायदार है ||
रंगशाला है, 'शशि' सारा जहाँ |
कर अदा तू, जो तेरा, किरदार है ||

हर किसी में, गर ख़ुदा का नूर है |
कोई मिलता खश कोई रंज चूर है ||
अपने-अपने, हाल में, सब मस्त हैं |
कोई अपनों में है, कोई दूर है ||
जोर कुछ, चलता नहीं, तकदीर पर |
बेवज़ह इन्सान हुआ, मगरूर है ||
ठोकरों पे रख दिया, जिसने जहाँ |
उसको दुनियाँ ने, कहा मन्सूर है ||
ज़िंदगी, इनाम है, या फिर सजा
इसको जीने पे, 'शशि' मजबूर है ||

सर कोई भी, किला नहीं होता |
दिल में गर, जलजला नहीं होता ||
चोट खाने पे, दर्द होता है |
दर्द दिल में, पला नहीं होता ||
क्या कहें, नेकी क्या, बड़ी क्या है |
दिल से ये, फैसला नहीं होता ||
दिल में बंदे के, आरजू का चिराग |
कब बताओ, जला नहीं होता ||
क्या 'शशि', तेरे साथ, फुर्सत में |
याद का, काफिला, नहीं होता ||

हूँ तो दीवाना मगर, मैं इतना दीवाना नहीं |
आप ने लगता है शायद, ठीक पहचाना नहीं ||
राज अफशां कर रहा हूँ, ये मेरा ईमान है |
जिस जगह पे दिल न चाहे, उस जगह जाना नहीं ||
तेरे लब पे मुस्कराहट, देखने की चाह में |
जो ख़ुशी से, जाँ लुटा दे, मैं वो परवाना नहीं ||
वक्त ने मौका दिया है, आखरत सँवार लो |
वक्त निकला हाथ से तो, लोट के आना नहीं ||
क्या फ़िक्र, जो कर न पाए, हो यहाँ तामीर घर ||
ये कोई मंजिल नहीं है, कोई काशाना नहीं || 

इस तरह तर्क-ऐ-ताल्लुक का, हुआ है वाक्यात |
न भुला पाउँगा शायद, वाक्या ये ता-हयात ||
उम्र-भर के साथ की, कसमों का होगा ये हश्र
हम बिछुड़ जायेंगे जल्दी, कुछ न थी इसकी खबर |
देखनी तन्हा पड़ेगी, मुझको अब ये कायनात |
 न भुला पाउँगा शायद, वाक्या ये ता-हयात ||
भूल पाउँगा उसे, मुमकिन नहीं लगता मुझे |
कोई भी जलवा जहाँ का, अब नहीं जँचता मुझे |
और ज्यादा हो गई है, ज़िंदगी की मुश्क्लात |
न भुला पाउँगा शायद, वाक्या ये ता-हयात ||

रुक तो सकता था कहीं भी, मैं मगर ठहरा न था |
सोच पर मेरी, किसी भी, याद का पहरा न था ||
रोकता था, वास्ता देकर मुझे, मेरा ज़मीर |
अनसुना करता रहा हूँ, मैं कोई बहरा न था ||||
उम्र भर करता रहा हूँ, जख्म-ऐ-दिल का मैं इलाज |
कामयाबी मिल  न पाईजख्म गो घर न था ||
फेर कर साये ने आँखें, कर दिया हैरतजदा |
एक अर्सा साथ रहकर, वो हुआ मेरा न था ||
आप भी हैरान होंगे, ये हकीकत जान कर |
जिस जगह तसकीन पाई, कब्र थी, सहरा न था ||
क्यूँ 'शशि' इतरा रहे हो, आज ख़ुद को देख कर |
जिसको देखा आईने में, वो तेरा चेहरा न था ||

इब्तदा थी, मैं  इन्तहा समझा |
एक गुल्चिम को, बागबाँ समझा ||
भूल कह लो,  इसे या नादानी |
बेरहम को था, मेहरबाँ समझा ||
ज़हन में इतने चेहरे, बसते हैं |
मैंने ख़ुद को ही, कारवाँ समझा ||
ख़ुद फरेबी में, जिंदगी गुजरी |
झूठ को सच सदा, यहाँ समझा ||
कोई मकसद नहीं है, जीने का |
बाद सब कुछ'शशि', गँवा समझा ||

तेरी यादों को कभी, मैं न भुला पाउँगा |
दिल को बातों में कभी, मैं न लगा पाउँगा ||
प्यार करना भी, गुनाहों  में गिना जायेगा |
न तवक्को थी, मुहब्बत की सजा पाउँगा ||
जब मुलाकात की, हर आस ने दम तोड़ दिया |
ढूँढने चैन खिन, क्यूँ मैं भला जाऊँगा ||
मौत गर तुझसे मिलाने का, कभी अहद करे |
'शशि' ख़ुशी से कहे, छोड़ जहाँ जाऊँगा ||

बन्दा हूँ, भगवान नहीं हूँ |
पत्थर का, इन्सान नहीं हूँ ||
वक्त के साथ, बदल सकता हूँ |
कोई वेद-पुराण नहीं हूँ ||
मैं भी गलती कर सकता हूँ |
धर्म नहीं हूँ, ज्ञान नहीं हूँ ||
हर्फ हूँ मैं, मिट जाने वाला |
गीता नहीं, कुरआन नहीं हूँ ||
बुरा लगे जो, आँख किसी को |
ऐसा कोई, निशान नहीं हूँ ||
सीख रहा हूँ, रस्म-ऐ-जमाना |
इतना भी, अन्जान नहीं हूँ ||
अपने से मत बहतर समझो |
'शशि' हूँ, आसमान नहीं हूँ ||

तिनका हूँ, श्तीर नहीं हूँ |
जिंदा हूँ, तस्वीर नहीं हूँ ||
टूट रहा हूँ, धीरे-धीरे |
मैं पुख्ता, तामीर नहीं हूँ ||
हैरत से मत, देखो मुझको |
घायल हूँ मैं, तीर नहीं हूँ ||
ख्वाब किसी का, हूँ मैं शायद |
ख्वाबों k , ताबीर नहीं हूँ ||
मेरा होना, है सच्चाई |
पानी पर , तहरीर नहीं हूँ ||
कतरे का भी, इक हिस्सा हूँ |
कल-कल करता, नीर नहीं हूँ ||
शायद मरहम, नहीं हूँ लकिन |
चोट नहीं हूँ, पीर नहीं हूँ ||
'शशि' हमेशा, है ये कहता |
कर्म हूँ मैं, तकदीर नहीं हूँ ||

गीत कैसे भी, तुम बनाया करो |
ज़िक्र मेरा न, उनमें लाया करो ||
दुनियादारी के, कुछ तकाज़े हैं
उनको जल्दी न, भूल जाया करो ||
ख़ुद को ख़ुद न, किया करो रुसवा |
कुछ तो दुनिया से भी, छुपाया करो ||
गैर हैं ग़र, जाने क्या जाने |
सबको हमराज़ न, बनाया करो ||
मुझसे हर बार, शिकवा रहता है |
अपने वादों , को भी निभाया करो ||
शायरों की जुबान, में मुझको |
'शशि', प्यार न जताया करो || 

तलाश मेरी मुझे, आप तक है ले आई |
नहीं है अब तो मुझे, कोई खौफ-ऐ-रुसवाई ||
सुना है, ख्वाब की, ताबीर कम ही होती है |
मैं खुशनसीब हूँ, मेरी उम्मीद बर आई ||
मेरी दीवानगी पे, लोग मुस्कराते थे |
मुझे भी ख़ुद पे, कई बार थी हँसी आई ||
मुझे पता था, करिश्में, जमीं पे होते हैं |
तभी तो मुझको, तेरे घर की, राह मिल पाई ||
तुम्हारा साथ, मेरी जिंदगी का, मकसद है |
न जी सकूंगा, जो तू, जिंदगी न बन पाई ||
'शशि'तलाश हुई खत्म,अब न घबराओ |
जश्न मनाओ, क़ि दिल में है, फिर बहार आई || 

प्यार की दिल में, प्यास बाकी है |
आज-तक दिल में, आस बाकी है ||
लाश हूँ, जी रहा हूँ, हैराँ हूँ |
जाने क्यूँ, मुझमें, साँस बाकी है ||
जिसको पाने की, दिल में हसरत है |
ज़हन में, उसकी बास, बाकी है ||
डर है, बेकार न, गुजर जाएँ |
चन्द लम्हे, जो ख़ास, बाकी हैं ||
बेवफा क्यूँ, 'शशि' कहें उसको |
प्यार ही का तो, पास बाकी है ||

हम न जाने कब तेरी, महफिल से उठ जायेंगे अब |
कौन जाने, कब बनेगा, फिर से मिलने का सबब ||
क्यूँ बिछड़ने की सज़ा, मिलती है, अक्सर प्यार में |
क्यूँ लिखी है, जीत के संग, हार भी , सँसार में ||
कैसे-कैसे आदमी को, ख्वाब दिखलाता है रब्ब |
हम न जाने कब तेरी, महफिल से उठ जायेंगे अब ||
याद मत रखना, कभी हम भी तेरे, हमराह थे |
वक्त की साज़िश के सदके, हो गये गुमराह थे ||
हाल-ऐ-दिल, नजरों से मत कहना, अगर बोलें न लब |
हम न जाने कब तेरी, महफिल से उठ जायेंगे अब ||
जिंदगी शायद ही, मौका दे, कि हम फिर से मिलें |
दूर होने चाहिए, इस वास्ते, शिकवे-गिले ||
मुस्करा के अलविदा, कहना 'शशि' से, सब के सब |
हम न जाने कब तेरी, महफिल से उठ जायेंगे अब ||

दाग-ऐ-रुसवाई, धुल गया आखिर |
राज़-ऐ-सच्चाई, खुल गया आखिर ||
मेरी तुर्बत पे, जो जलाया था |
चिराग यारो, हो गुल गया आखिर ||
जिसने चाहा मुझे, मिटाना था |
खाक में ख़ुद, वो रुल गया आखिर ||
जिसको दौलत, खुदा से प्यारी थी |
मोल मिटटी के, तुल गया आखिर ||
दो ही टुकड़े हुए, 'शशि' के थे |
जिसपे बन एक, पुल गया आखिर ||

दिल परेशान, मत बनाओ तुम |
बात कैसी हो, भूल जाओ तुम ||
आजमाईश से, होगी मायूसी |
कभी अपने न, आज़माओ तुम ||
कुछ भी मुमकिन है, दुनिया वालों से |
न उम्मीद-ऐ-वफा, लगाओ तुम ||
साफगोई की, डाल लो आदत
न किसी का, लिहाज़, खाओ तुम ||
रस्मों-रिश्तों में, अब नहीं ताकत |
'शशि' अब तो, बदल ही, जाओ तुम ||

कोई बात तो होगी, जो यह अक्सर होता है |
उसके हाथ में, जब भी देखो, पत्थर होता है ||
उसके हाथ के पत्थर की तो, बात ही मत छेड़ो ||
उसके लबों पे, रखा हुआ, इक नश्तर होता है ||
उसके हाथ के, पत्थर का डर, उसको होता है |
जिसके हाथ में, पहले से ही, पत्थर होता है ||
जब हो मुकाबिल, पत्थर के, पत्थर तो सच माने
देखने वाला, एक प्यारा, मंजर होता है ||
पत्थर से टकराओ पत्थर, आग निकलती है |
पत्थर को, टकराने वाला, पत्थर होता है ||
'शशि' अगर पत्थर छोड़ोगे, तब यह जानोगे |
दुआ को उठते हाथ हैं, जिनमे पत्थर होता है ||  ,

किसलिए गैरों के, पहलू को, गवारा कर लिया
किसलिए अपनों से तुमने, है किनारा कर लिया ||
क्यूँ तेरे किरदार पर, ऊँगली उठता हर कोई |
किस कद्र है, तुमने खुद को,बेसहारा कर लिया ||
गैर, गैरों से किया करता हैं, बातें गैर की |
किस ख़ुशी में गैर को, तुमने सहारा कर लिया ||
सीरत-सूरत तेरी, दिखने में, लगती ठीक है |
जन कर है तुमने खुद को, पारा-पारा कर लिया ||
चुप नहीं सकते है, इश्क-ओ-मुश्क, दुनिया में कभी |
क्यूँ भला मंजूर, रुसवाई का धारा कर लिया || 
बेवफाई का तेरी, आता नहीं, अब भी यकीं |
जब्कि तुमने खेल अब तक, खत्म सारा कर लिया ||
लौट  आओ, लौटना मुश्किल न हो जाये कहीं |
क्यूँ है अपने ही किनारों से, किनारा कर लिया ||
अपने रूठे आज तो, कल मान जायेंगे जरुर |
हद है तुमने गैर को, अपनों से प्यारा कर लिया ||
'शशि' करना कभी, महफिल में अब दावा कोई |
खुद को तुमने बेवजह ही, हारा-हारा कर लिया ||
महशर में, रोज़-ऐ-हश्र, हम ले जाये जायेंगे |
अपने गुनाह, सब वहां, गिनवाए जायेंगे ||
महशर की फ़िक्र, अब से ही, करना गुनाह है |
उससे कबल, हम शान से, दफनाये जायेंगे ||
प्यार करने की खता, हमसे हुई है, उम्र भर |
लगता नहीं, इस जुर्म के बदले, सज़ा हम पाएंगे ||
आज तक जब आदमीं, फितरत बदल, पाया नहीं |
हम  भला, फितरत से अपंज, बाज़ क्यूँकर आएंगे ||
चार दिन की जिंदगी, सौगात में, पाकर 'शशि' |
हम मरीज़-ऐ-इश्क बन कर, ही बसर कर जायेंगे ||

जिसको अपना कह सकें, ऐसा यहाँ कुछ भी नहीं |
इक तमाशे से ज्यादा, ये जहाँ कुछ भी नहीं ||
देखने को, देखने वालो, बहुत कुछ है यहाँ |
इक कज़ा है, जिसके हाथों, से बचा कुछ भी नहीं ||
चन्द-तारे, आग-पानी, यह रुतें और यह हवा |
कुछ नहीं है यह ज़मीं, और आसमाँ कुछ भी नहीं ||
अब फसानों में फक्त, मिलते हैं जो हमको 'शशि' |
उनके होने के निशाँ, मिलते यहाँ कुछ भी नहीं ||

जब से देखी, मैंने तेरी सूरत  है |
मान गया तू, सुन्दरता की मूरत है ||
दिल कहता है, आँख से, हर पल देख उसे
दिल को मुझसे ज्यादा, तेरी जरूरत है ||
दिल चाहे, दिन-रात तू मुझसे, बात करे |
मेरे दिल पर, बन गई, एक मुसीबत है ||
रस्मों-रिश्तों के हाथों, मजबूर हूँ मैं |
खौफ-ऐ-जहाँ भी, सुना है, एक शहूर्त है ||
आती-जाती साँस है, दिल की धडकन तू |
तू कुदरत है, या तू कोई कदूरत है ||

फासलों को भले ही, कम कर लो |
फासलों को न पर, खत्म कर लो ||
फासलों में बला की, गर्मीं है |
फासलों से ज़ुबां में, नरमी है ||
दिल पे मेरा कहा, कलम कर लो
फासलों को भले ही, कम कर लो |
फासलों को न पर, खत्म कर लो ||
फासले आरज़ू, जगाते  हैं |
फासले उल्फ्तें, बढ़ाते हैं ||
गिर्द अपने, कोई भ्रम कर लो |
फासलों को भले ही, कम कर लो |
फासलों को न पर, खत्म कर लो ||
देखना फासले न, बढ़ जाएँ |
पर इक खास हद न, कर जाएँ ||
कोई साज़िश भी, हमकदम कर लो |
फासलों को भले ही, कम कर लो |
फासलों को न पर, खत्म कर लो ||

खौफ अब, हर ख़ुशी, से आता है |
मेरा माझी मुझे, डराता  है || 
लम्हा-लम्हा, ये ज़िंदगी जी है |
लम्हे-लम्हे का, अपना खता है ||
जो भी मुश्किल से, याद करता हूँ |
वो आसानी से, भूल जाता है ||
जिससे तस्कीं की, तवक्को हो |
वो ही तकलीफ, दे के जाता है ||
याद करता हूँ जब, रकीबों को |
नाम  लब पर, तुम्हारा आता है ||
दिल बना है, न जाने, किस शेय से |
खूब रोता है, खूब गाता है ||
मौसमों का, अज़ीब आलम है |
एक जाता है, एक आता है ||
सोच कर क्या, 'शशि' खुदा आखिर |
खुद बनता है, खुद मिटाता है ||

गुजर जाने दो, इस तूफान को भी |
यह पहली बार तो, होना नहीं है ||
मेरे दिल को, खिलौना मत बनाओ |
इसे आता अभी, रोना नहीं है ||
वो आदमकद है, इख्लाकन अस्ल में |
वो लगता है, मगर बौना नहीं है ||
गिरेंगे फूल-पत्ते ही, खिजाँ में |
कभी काँटों को कुछ, होना नहीं है ||
अगर कुछ गा रहे हो, सुर में गाओ |
हमें सुनना यहाँ, रोना नहीं है ||
निशानी, ज़िंदगी की, है रवानी |
इसे बेकार ही, खोना नीं है || 

जीने का फ़न सिखा दिया, मुझको रकीब ने |
दुश्मन बहुत हसीन दिया, है नसीब ने ||
साये ने साथ छोड़ कर, हैरान कर दिया |
जैसे कत्ल, गरीब किया हो, गरीब ने ||
बदले, ऐतमाद के, हमको मिले फरेब |
सौगात  गम दिये हैं, हमारे हबीब ने ||
मुद्दत हुई है, खुद से मिले, गो हैं हमसफर |
पैदा किए हैं फांसले, उनके करीब ने ||

अब मेरी आँख में, आँसू नहीं आने वाले |
लाख जी भर के, सता लें, ये जमाने वाले ||
अब तो शायद ही, किसी बात पे, रोना आये |
हादसे इतने हुए, मुझको रुलाने वाले ||
जानता हूँ की नहीं, लौट के फिर आयेंगे ||
जितने लम्हे थे, मेरे दिल को, लुभाने वाले || 
राह तकता हूँ, खुली आँख से, सोते-सोते |
लौट जाएँ न कहीं, लौट के आने वाले ||
गैर होते तो, जमाने से, गिला भी करते |
मेरे अपने हैं, मेरा चैन, चुराने वाले ||
क्त तो जाएगी 'शशि' उम्र ये जैसे-तैसे |
हम भी रूठों को, नहीं अब तो, मनाने वाले || 

स्याही रात की, तरी हर सू |
अक्ल वालों ने, अँधेरा किया है ||
वहाँ इन्साफ़ के, कातिल हैं पलते |
सियासत ने जहाँ, डेरा किया है ||
हुआ मजबूर हर इक, बेजुबां है |
यक़ीनन, ज़ुल्म ने, फेरा किया है ||
सिमटती जा रही, अब हर ख़ुशी है
गमों ने जब से, तंग घेरा किया है ||
'शशि' से है शिकायत, हर किसी को |
ब्याँ क्यूँ हाल सब, मेरा किया है ||

वो जो बातें, मुझे समझा रहा है |
समझ मेरी में, कुछ-कुछ आ रहा है ||
वो सरगम की, तर्ज़ में रो रहा है |
यूँ लगता है, कि जैसे गा रहा है ||
ये दुनियाँ है अस्ल में इक सराय |
कोई जाता है, कोई आ रहा है ||

जो दिखलाती है, इन्सां का मुकद्दर |
मेरे हाथों में वो, रेखा नहीं है ||
नजर सब देख कर, खामोश क्यूँ है |
कि जैसे कुछ भी तो, देखा नहीं है ||
वजह होगी, जो कि, मेरे खुदा ने |
मेरी किस्मत में, कुछ लिखा नहीं है ||

उसे अब तो, निखरना आ गया है |
उसे बनाना-सँवरना, आ गया है ||
शर्म से जो, कभी थी डूब जाती |
सुना उसको भी, तरना आ गया है ||
सभी कहते थे, क्या वो चल सकेगी |
जिसे काँटों पे, चलना आ गया है ||
जिसे कुछ काम, कल आता नहीं था |
उसे सब काम,  करना आ गया है ||
जो थी बेजान, तस्वीरें बनाती |
उसे अब रंग, भरना आगया है ||
इशारों से ही जो, करती थी बातें |
उसे अब बात, करना आ गया है ||

मैं ले तो मोल लूँ, कुछ वक्त लेकिन |
है दिक्कत ये की, यह बिकता नहीं है ||
कमाया जो जहाँ से, खा लिया सब |
कुछ अब खाते में तो, बचता नहीं है ||
है देखा टूटता, न झुकने वाला |
जो कहता था की वो, झुकता नहीं है ||
वो मिलने को, तरसता आजकल है
सुना जिसका था कि, मिलता नहीं है ||
बहुत कहते हैं, मर जायेंगे तुम बिन |
हकीकत में कोई, मरता नहीं है ||
बहुत लौटे हैं, तूफ़ान से उलझकर |
भंवर से, तो कोई, बचता नहीं है || 
गरीबों को हिकारत, से न देखो |
खुदा दूजी जगह, बसता नहीं है || 

इमदाद वो क्या देंगे, जो दाद नहीं देते |
नाशाद ही करते हैं, पर शाद नहीं देते ||
मिलता है मुकद्दर ही, मिलता है बहाने से |
हालत हमारे ही, कुछ साथ नहीं देते ||
बसने को तो बस जाएँ, हम एक जगह टिक कर |
कुछ दोस्त हमें होने, आबाद नहीं देते ||
कई बार तो पूछा है, हमने तो बहाने से |
हिसाब वो रखते हैं, हिसाब नहीं देते ||
है तो सही किस्मत में, वो नींद जो न टूटे |
मौला, हमें क्यूँकर वो, सौगात नहीं देते ||
जी में तो आता है, मंजिल कि तरफ हो लूँ |
क्यूँ मेरे कदम मेरा, अब साथ नहीं देते || 

मैं अपने पाँव चलने, लग गया हूँ |
मैं अब खुद ही संभलने, लग गया हूँ ||
मुसाफ़त जो मुझे, फिर से मिली है |
रह-ऐ-मंजिल से, डरने लग गया हूँ ||
मैं हूँ हैरान पर, ख़ुश भी बहुत हूँ |
जो सोचा न था, करने लग गया हूँ ||
हसद कि इन्तहा, पहुची यहाँ तक |
मैं खुद से खुद ही, जलने लग गया हूँ ||
मुझे एहसास ये, होने लगा है |  
मन्निंदे शाम, ढलने लग गया हूँ || 

मुहब्बत बाँटने से, कम न होगी |
गमीं कोई कभी, हमदम न होगी ||
नहीं जो प्यार के, मायने से वाकिफ |
सुनी उसने कोई, सरगम न होगी ||
त्स्स्वर जिंदगी का, बिन मुहब्बत |
नहीं मुमकिन यह, गर बरहम न होगी ||
'शशि' फसल-ऐ-मुहब्बत, जिंदगी है |
हसीं इससे तो, हाँ शबनम न होगी ||

चला तो खूब हूँ, लगता है फिर भी |
बचा बाकी अभी, रस्ता बहुत है ||
जिसे घुन पारसाई का, लगा हो |
हमें उस शाख का, पत्ता बहुत है ||
यहाँ ईमान बिकता है, सुना है |
किसी कीमत पे, ये सस्ता बहुत है ||
बज़ाहिर तो जो, पुख्ता लग रहा है |
हकीकत में तो वो, सस्ता बहुत है ||
जिसे खल्क-ऐ-खुदा की, शर्म होगी |
वो हर इक दाग़ से, बचता बहुत है || 
'शशि' जब से सुना, सूफी हुआ है |
वो अपने आप, पर हंसता बहुत है ||

बनाया बन्दगी को, था यह बन्दा |
यहाँ दीखता कोई, बन्दा नहीं है ||
हम इक दूजे को, कहते चाँद सा हैं |
फल्क पे क्या रहा, चंदा नहीं है ||
तिजारत जिस्म तक की, हो रही है |
यह धंधा तो कोई, धंधा नहीं है ||
ज़हन  के बंद तो, कर दूँ दरींचे |
समझता सब है ये, अँधा नहीं है ||
मैं क्यूँ कर बेच दूँ, ईमान अपना |
ये सरमाया मेरा, सौदा नहीं है ||
हमें दिखता है, सब चल-फिर रहे हैं |
मगर लगता कोई, जिंदा नहीं है ||

सुना नीलाम अब वो, हो चुका है |
था यह मशहूर, वो बिकता नहीं है ||
भुधापा इस कदर, हावी हुआ है |
जो पच जाता था, अब पचता नहीं है ||
न दोनों हाथ से, दुनियाँ को लूटो |
यह पैसा इक जगह, टिकता नहीं है ||
ज़िक्र शेख-ओ-ब्रह्मण, का न छेड़ो ||
वो जो कहता है, सब करता नहीं है ||
नुमाइश के लिए, बनना सँवरना |
यह  इंसानों पे तो, जंचता नहीं है ||
नहीं कुछ देखने को, अब बचा है |
क्यूँ अल्लाह अब तू कुछ, करता नहीं है ||

यह चक्कर क्या है, कि चक्कर समय का |
चला रहता है, ये थमता  नहीं है ||
हुआ करती थी, इक बस्ती यहाँ पर |
कोई उसका निशाँ, मिलता नहीं है ||
वो है तो साँप पर, आदत है उसकी |
डराता है सिर्फ, डसता नहीं है ||
मेरे जख्मों पे, मरहम न लगाओ |
अब इससे भी तो, कुछ बनता नहीं है ||
बहुत मांगी दुआएँ, थक गया हूँ |
दुआओं में असर, लगता नहीं है ||
हमें लगता था, कि वो हस रहा है |
अस्ल में वो कभी, हसता नहीं है || 

उनकी ज़फा का हमको, क्यूँ ऐतबार आये |
वो आजकल खफ़ा है, दिल कैसे मान जाए ||
माना कि आजकल वो, कुछ दूर हो गये हैं |
हम जानते हैं कि वो, मजबूर हो गये हैं ||
रुसवाइयों के डर से, वो रुख को, हैं छुपाये |
 वो आजकल खफ़ा है, दिल कैसे मान जाए ||
जो दिल तड़प रहा है, वो जरुर होंगे गम में |
जो समझ रहे हैं हमको, वो जरुर होंगे हममें ||
साए मैं आँसुओं के, हम कैसे मुस्कराएं |   
वो आजकल खफ़ा है, दिल कैसे मान जाए ||
ऐ दिल उदास न हो, अभी कुछ हुआ नहीं है |
क्यूँ कर रहा यकीं है, असर-ऐ-दुआ नहीं है ||
कुछ हादसों कि खातिर, क्यूँ दिल 'शशि' जलाएं |
वो आजकल खफ़ा है, दिल कैसे मान जाए ||

यह इस वक्त का तो, य्काज़ा नहीं है |
न भूलो, यहाँ पर, जनाज़ा नहीं है ||
यह कैसे हुआ है, सभी जानते हैं |
यह बासी खबर है, ये ताज़ा नहीं है ||
सुनो मैं सुनाता हूँ, सच्ची कहानी |
मगर इसमें, रानी और राजा नहीं है ||
हकीकत में दुनियाँ, बहुत मुख्त्ल्फ़ है |
चना लोहे का है, ये खाज़ा नहीं है ||
'शशि' चाहता, शान से, अपनी रुखसत |
मगर यहाँ, शहनाई और बाजा नहीं है ||

गिला फिर न कोई, कभी हमसे करना |
मुझे वक्त पे क्यूँकर, टोका नहीं था ||
तुम्हें इसलिए सारे, समझा रहे हैं |
न तुम कह ये पाओ, कि रोका नहीं था ||
हमें इतना कहना है, अब भी संभल लो|
बना ऐसा पहले तो, मौका नहीं था ||
न फिर हमसे कहना, कि खाया है धोखा |
वो तूफ़ान था, कोई झोंका नहीं था ||
 जो समझा 'शशि' ने फक्त वो कहा है |
वो पहले कभी ऐसे, बोला नहीं था ||


जो बेशर्मी से, मुझ पे, हस रहा था |
सुना घर जा के वो, रोया बहुत है ||
गिना करता है जो, रातों को तारे |
सुना वो उम्र भर, सोया बहुत है ||
कभी पूछो कि, पाया क्या अमीरों |
कहेंगे पाया कम, खोया बहुत है ||
नहीं जाता है, क्यूँ ये दाग़ यारो |
इसे रगडा बहुत, धोया बहुत है ||
ख़ुशी उसको खान, तसकीन देगी |
उम्र भर जिसने, गम बोया बहुत है ||
बचे कितना भी कम, दे दो 'शशि' को |
उसे तो कम से कम, गोया बहुत है ||

नसीहत इन दिनों, फ़रमा रहा है |
वो जो कुछ सोचता है, गा रहा है ||
नई बातें कोई, करता नहीं है |
जो उसको याद है, दुहरा रहा है ||
कोई कहता है, दीवाना हुआ है |
कोई कहता है, कि सठिया रहा है ||
वो जब देखो, मिले है बोलता ही |
वो अपने-आप से, बतिया रहा है ||
मुतास्सिर इस कदर, उससे हुआ हूँ |
जहन मेरे पे, छाता जा रहा है ||

मैखाना है मैखाना, मस्जिद है न मदरस्सा 
मैखाने कि फितरत है, वीरान नहीं होता ||
मैखाने में हर लम्हा, इक शम्मा मचलती है |
जिसे देख के जलता भी, इन्सान नहीं रोता ||
जो साँस कि डोरी है, न जाने कहाँ टूटे |
हर शख्स को पर इसका, इम्कान नहीं होता ||
जिनको सब दे डाला, अपने ही वो सारे थे |
अपनों पे सुना है कि, एहसान नहीं होता ||

वो लोगों के दिलों में झाँकता है |
वो कुछ ज्यादा ही लंबी हाँकता है ||
चला रहता है, वो कुछ खोजने को |
वो नाहक धुल-मिटटी, फाँकता है ||
न जाने, किस जहाँ में, है वो रहता |
वो अपनी, हद कभी न लाँघता है ||
परखता है, न जाने, किस तरह वो |
कसौटी कौन सी, पे जाँचता है ||
वो साँसों कि तरह, लेता है आहें ||
वो जब चादर, ग़मों कि, तानता है ||
वो कहता है कि, हर बन्दा, खुदा है |
खुदा को, कब खुदा, वो मानता है ||
'
शशि' कुछ मशवरा, उस से ही ले लो |
तुम्हें वो जानता, पहचानता है ||


निकलता घर से वो, बाहर नहीं है |
वो तन्हाई में, जाता डर नहीं है ||
वो कहता है कि, वो है इक परिन्दा |
लगा देखा उसे, कोई पर नहीं है ||
शहंशाह कि तरह, रहता है लेकिन |
अगर मांगो तो, कहता ज़र नहीं है ||
खुदा का घर है, ये सारी खुदाई |
कोई मस्जिद, कोई मंदिर नहीं है ||

यह कैसा दौर अब बरपा गया है |
जवानी पे, बुढ़ापा छा गया है ||
यहाँ पर शेर तक, सहमे हुए हैं |
कोई लगता इन्हें, धमका गया है ||
उठा कर सर कोई, चलता  नहीं है ||
लगा शायद कोई, पहरा गया है ||
यहाँ जीना तो अब, लगता सज़ा है |
हर इक डर से, यहाँ बौरा गया है ||
'शशि' सब कुछ, बदल दो, जिस तरह हो |
चलन, दस्तूर जो, बिगड़ा गया है || 

यह बस्ती, पारसाइयों की है बस्ती |
यहाँ सूफी हैं कम, रिन्दाँ बहुत हैं ||
इकट्ठे खुदकशी, बस्ती ने की थी |
जो हैं जिन्दान, वो शर्मिन्दान बहुत हैं ||

कोई तुजसा, कोई मुझसा नहीं है |
जहाँ में एक सा, दूजा नहीं है ||
हर इक चेहरे ने, हैं चेहरे लगाये |
जो दिखता है, वो सब सच्चा नहीं है ||

जिसमें भावों की, बहती सरिता है |
बस उसी का तो, नाम कविता है ||

कोई रिश्ता रहा, रिश्ता नहीं है |
शुक्र है, दोस्ती रिश्ता नहीं है ||
ख़ुदा का हमशक्ल है यार मेरा |
ख़ुदा अच्छा किसे लगता नहीं है ||

अफसाना समझ लेना, गो है नहीं अफसाना |
फानूस बने रहना,कहीं खुद ही न जल जाना ||
साया भी नहीं साथी, बनता है मुसीबत में |
नादानी न कर लेना, मायूस न हो जाना ||

होली के रंग तमाम, तुम्हें कर श्रृंगार दें |
होली पे दिल से हम ये दुआ, बार-बार दें ||

फ़िरदौस के लालच में, दुनियाँ को चुना मैंने |
रहबर के इशारों को, समझा न सुना मैंने ||
दोज़ख से नहीं बहतर, दुनियाँ है हकीकत में ||
सरगम न समझ आई, सर लाख धुना मैंने ||

बदलाव है आ जाता, जब वक्त गुजरता है |
दफनाता है खुद इन्सान, नाकाम इरादों को ||
लाशों को भला कब तक, संभाल के रखोगे |
वहशी नज़र आता है, भूले न जो यादों को ||

जिस चैन की तलाश में, भटका तमाम उम्र |
उसने भी मेरे साथ किया, उम्र भर सफ़र ||

औरों को होसला करो, कहता हूँ आजकल |
खुद होसले की तक में, रहता हूँ आजकल ||
पत्थर की इक मीनार सा, दिन में रहूँ बना
पानी की तरह रात को, बहता हूँ आजकल ||

शेयरों को अपना नाम से, मनसूब कर लिया |
ताल्लुक़ हमारे साथ बहुत, खूब कर लिया ||
इक शेयर में, मैं अपना खुदा उनको, कह गया |
आये, खुदा मिटा दिया, महबूब कर लिया ||

इस दहर में जो शख्स भी, मगरूर हुआ है |
अपनों से क्या, खुद अपने से, वो दूर हुआ है ||


तलवार के ज़ख्मों का, भर पाना तो मुमकिन है |
लफ्ज़ों से जो लगते है, वो ज़ख्म नहीं भरते ||
वादों को निभा पाना, आसान तो लगता है |
रस्ते के जो कांटे हैं, सस्ते में नहीं हटते ||

अनजाने में, अनजानों से, घुल-मिल जाता हूँ |
अनजानों   के अनजानों से, मेल कराता हूँ ||
लफ्ज़-ऐ-मुहब्बत में मैंने, तासीर जो पाई है |
बार-बार, बातों-बातों में, उसे सुनाता हूँ ||


लौटना मुमकिन नहीं है,जिस जगह से , हूँ वहाँ
कुछ भी कह सकता नहीं, कि है मेरी मंजिल  कहाँ ||

मुझे तो सुख ज़रा सा, ही बहुत है |
सिर्फ झूठा दिलासाही बहुत है ||
कहाँ तफसील है, दरकार मुझको ||
सिर्फ थोडा खुलासा, ही बहुत है ||
नहीं  लबरेज़, पैमाने की हसरत |
ये थोडा काम भरा सा, ही बहुत है ||
जो अब कुछ-कुछ, डरा सा लग रहा है |
वो इतना भी, डरा सा, ही बहुत है ||

फ़िक्र करता हूँ, मेरी आदत है |
फ़िक्र ही दरअसल इबादत है ||
बेफिक्र, बेवकूफ होते है |
फ़िक्र ही होश की, जमानत है ||

लबों पे आसमान के, चाँद का, जब ज़िक्र आता है |
ज़हन में तेरी सूरत का, हमेशा फ़िक्र आता है ||

भुला पाई नहीं दुनियाँ, मुहब्बत आज तक अपनी |
ज़माने की बदौलत, जिंदगी अब, हाथ मलती है |
हुआ तर्क-ऐ-ताल्लुक़ को, भी इक अर्सा, मगर अब भी |
ज़िक्र   दोनों का आता है, कभी जब बात चलती है ||

झूठ खूबी से, बोल लेते हैं |
कर वो अच्छे, कलोल लेते हैं ||
मात देनी हो जब, घटाओं को |
अपनी जुल्फें वो, खोल लेते हैं ||

आपका आना, हमारे वास्ते, सौगात है |
आज या टी ईद है, या फिर शब-ऐ-बरात है ||

काम तलवार का लेते हैं, कलम रखते हैं |
हम तो पहलू में नहीं, दिल में सनम रखते हैं ||
मुस्कराने के तो मायने न हुए, हम ख़ुश हैं |
हम पे इक दिल है, जहाँ रंज-ओ-अल्म रखते हैं ||

मैं भी हिस्सा हूँ, भीड़ का लेकिन |
भीड़ मुझसे, खफा सी लगती है ||
मेरी सूरत भी आजकल मुझको |
आईने में, ज़ुदा सी लगती है ||

कभी न मेरी दुआओं के, फूल मुरझाएं |
नये बरस की मुबारक, कबूल फरमाएं ||

हिंदी प्रसार हतु सन्देश 

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यातायात सम्भंधित सन्देश      

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MAKE WORTH.                  BIRTH ON EARTH.

WELCOME.                        SIGNS WISDOM.

WISE SPENT.                     NO REPENT.

PLEASURE IN PLEASING.   TEARS IN TEASING. 

LEARN WEAVING.             LEAVE TEARING.

FAIR PRAYER.                    FAILS RARE.

EACH CAN.                          BEST PLAN.

PIOUS GAINS,                     JOYS.

RETIREMENT ?                    DEATH WARRANT.

SELF REALIZATION.           TRUE MEDITATION.


                       PRAYER

  'O' GOD
                      
  MY LORD
      
 Bless me courage,
       
to complete the voyage 

with full determination. 

A midst all occasion.  

Keep me loyal

Honest & Royal.  

To my nation

and all relations.

Help me in dark. 

Make me to spark. 

 In life's battle,

i be immortal.

Excuse Omissions

Sincere Submission.


              Thanks.  Shashi Mehra
                              writer                    





  







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