Sunday, June 19, 2011

वलवले

चमन में गुल, महकने लग गए हैं |
परिंदे भी ,चहकने लग गए हैं ||
सुना है इन दिनों, ज़न्नत में अक्सर |
फ़रिश्ते भी , बहकाने लग गए हैं ||
ज़मीं पर भी, हुईं तबदीलियाँ है |
यहाँ पत्थर, पिघलने लग गए हैं ||
'शशि' अब खुद ही तुम, खुद को बदल लो |
सभी मौसम, बदलने लग गए हैं || 

वलवले

वो जो, लोफर- आवारा , लगता है |
वक़्त का वो तो, मारा लगता है ||
उसकी आँखों में, गौर से देखो |
वो तो बेबस, बेचारा, लगता है ||
वो सहारा भी, मांगता ही नहीं |
जो किसी का, सहारा लगता है ||
मुँह छुपाता है, शर्म करता है | 
वो भले घर का, तारा लगता है ||
वो जो सबसे, कटा सा रहता है |
एक इन्सान, प्यारा लगता है ||

वलवले

गमें-दौराँ में जीने की, आरजू लेकर |
कहाँ-कहाँ न गए, शोर-ए-दिल की बू लेकर || 
था जिन पे नाज़, सहारा बनेंगे, मुश्किल में |
बहुत निराश हुए, उनसे, रुबरु होकर ||
मिला न कोई, खरीदार, मेरी  हस्ती का | 
किया ज़मीर को ज़ख़्मी है, आबरू खोकर ||
'शशि' न सीख, ज़माने से, बेवफा होना |
नहीं मिलेगा सुकूँ, उस सा हुबहू होकर ||  
 

Friday, June 17, 2011

शोर-ए-दिल

शोर-ए-दिल, थम नहीं, रहा अपना |
अब इसे गम नहीं, रहा अपना || 
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दिखाने के लिए, बस आबले हैं |
रह-ए-मंजिल में, जो हमको मिले हैं ||
सुना है की, गिला करना गुनाह है |
इसी बैस, हमारे, लब सिले हैं || 
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नसीहत न सही, तुम यूँ समझ लो |
गया जो, लौट के, आता नहीं है ||
बशर रुसवाइयों के, दाग़ यारो |
उम्र भर में, मिटा पाता नहीं है || 
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दोस्त गर हैं तो, दूर आफत है |
दोस्ती की यही, शिनाख्त है ||
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 बहुत कुछ कर लिया, बस में है बेशक |
बहुत लाचार, फिर भी, हर बशर है ||
दुआ करना, दावा ग़र, बेअसर हो |
सुना है की, दुआओं में, असर है ||
गमें-दौरान में हिम्मत हारना मत |
यक़ीनन हर गमे-शब की सहर है ||
खुदाई है 'शशि' तोहफा खुदा का |
हर इक शैय में, ख़ुदा, ख़ुद जल्वागर है ||










वलवले

यही अफ़सोस, मुझको खा रहा है |
जो मेरा है, मुझे, तडपा रहा है ||  
जिसे श्रवन, कहा करता था सब में | 
वो बन के साँप, डसने आ रहा है || 
वो देता रोज़ है, झूठे दिलासे |
मेरी हस्ती को वो, ठुकरा रहा है ||
वो इक मक्कार की, साज़िश का मारा |
 नसीहत को मेरी, झुठला रहा है ||
मुझे हर बार ही, लगता है जैसे |
किये अपने पे वो, पछता रहा है ||
'शशि' दर भी रहा है, दिल ही दिल में |
वो धोखा तो नहीं, फिर खा रहा है ||

वलवले

हकीकत को, फ़साना कह रहा हूँ |
दर्द को, जैसे-तैसे, सह रहा हूँ ||
नसीहत खुद को भी, करता नहीं हूँ |
बहानों से मैं, जिंदा रह रहा हूँ || 
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बहुत मक्कार,और बदकार है वो |
मुकम्मल बेहया- बाज़ार है वो ||  
ज़माने की नहीं परवाह जिसको |
नहीं है आबरू की चाह जिसको ||
उमीदों से भी कम किरदार है वो | मुकम्मल बेहया- बाज़ार है वो ||
मेरे बच्चे को उसने छल लिया है |
न जाने कौन सा बदला लिया है |
किसी गंदे गटर की गार है वो | मुकम्मल बेहया- बाज़ार है वो ||
उसके वालिद भी शायद बे-शर्म हैं |
जो इस धंधे को ही समझें धर्म हैं ||
लगें चोरों के भी, सरदार हैं वो | मुकम्मल बेहया- बाज़ार है वो ||

Sunday, June 12, 2011

वलवले

तवक्को न थी मुझको, ख्वाब में भी | मेरे अपने मुझे रुसवा करेंगे ||
खुदा से मौत मांगूँ, रात-दिन मैं | न सोचा था, वो कुछ ऐसा करेंगे ||

बड़ी मुश्किल से अब पाला पड़ा है | 
लबों पे शर्म का ताला पड़ा है ||
मेरे अपने मेरे दुश्मन हुए हैं | 
जो उजाला था, वो सब काला पड़ा है ||
नहीं मन चाहता है, कुछ  भी कहना |
लबों पे ज़ब्त का, ताला पड़ा है ||

शोर-ए -दिल

आप की जाने की जिद ने, मुझको घायल कर दिया |
आप की बातों ने मुझको, खूब पागल कर दिया ||
नींद आँखों में नहीं है, चैन मेरा खो गया |
हद है तू मुझको जगा के, चैन से है सो गया ||
मुझको तेरी संग-दिली ने, अब तो कायल कर दिया |आप की जाने की जिद ने
है तम्मना ख्वाब तेरे, हाथ से पूरे करूँ |
मैं तुम्हारी, आस्तीं को, चाँद-तारों से भरूँ ||
हम हैं दुश्मन, क्यूँ भला, मन में वहम ये भर लिया | आप की जाने की जिद ने
तुमने शोहरत ही नहीं, इज्ज़त भी ली,अपनी बिगाड़ |
बे-शर्म बन के हो कहते, क्या कोई लेगा बिगाड़ ||
शर्म और लिहाज़, दोनों को, धरातल कर दिया |  आप की जाने की जिद ने



   

वलवले ( नसीहत )

न पड़े दोनों को रोना, लाल कुछ ऐसा करो |
एक हो अपना बिछौना, लाल कुछ ऐसा करो ||
जीते जी हम, देख न पायेंगे, मुश्किल में तुम्हें | 
आँखों और साँसों के ज़रिये, दिल में है रक्खा तुम्हें || 
इससे पहले हम ही, हो न, लाल कुछ ऐसा करो || न पड़े दोनों को रोना
क्या हमारे प्यार का, ऐसा सिला माकूल है |
खून के रिश्ते तुम्हें, लगने लगे क्यूँ धूल हैं || 
टूटे न, सपना सलोना, लाल कुछ ऐसा करो | न पड़े दोनों को रोना
साथ रह के भी जुदाई का, मज़ा हमने चखा |
पास रह के दूर खुद को, खूब है तुमने रक्खा ||
न पड़े शर्मिंदा होना, लाल कुछ ऐसा करो | न पड़े दोनों को रोना
हमको अपना मानने से, कर रहे इन्कार हो |
क्या हमारी, सूरतों से, इस कद्र बेज़ार हो ||
न पड़े हमें जान खोना, लाल कुछ ऐसा करो | न पड़े दोनों को रोना
सच नहीं, ठुअक्र के हमको, चैन से, सोओगे तुम | 
हम न होंगें, यद् कर-कर के, बहुत रोओगे तुम |
ताल दो तुम ऐसा होना, लाल कुछ ऐसा करो | न पड़े दोनों को रोना










   

वलवले

ज़िन्दगी का, सफ़ा भर गया |
अब बचा है, सिर्फ हाशिया ||
याद आता है, रह-रह के अब |
ज़िन्दगी का, हर इक वाक्या ||
बात आख़िर समझ आ गई |
ये ज़हाँ, न तेरा न मेरा ||
मुझसे तुम, बेवज़ह हो खफा |
सब खुदा की, रज़ा से हुआ ||
मरने वाला तो, फिर जी पड़ा |
ज़िन्दगी-मौत में,फर्क क्या ||
सीखी जीने की, जिस दिन कला |
दे दी उस दिन, कज़ा ने सदा ||
कैसे कर दे, 'शशि' फैसला |
क्या बुरा है यहाँ क्या भला || 
   

Friday, June 10, 2011

शोर-ए-दिल

बहुत बेचैन और बेबस किया है |
मेरे अपनों ने मुझको डस लिया है |
जिसे पलने से, चलने तक सिखाया |
उसी ने आज, मुझको है रुलाया ||  
बहुत हैरान हूँ की इस उम्र में 
खुदा ने किस, खता का फल दिया है || मेरे अपनों ने मुझको डस लिया है 
मुझे उम्मीद थी, कंधे की जिससे |
कमर मेरी में उसने, बल दिया है || मेरे अपनों ने मुझको डस लिया है 
मैं ऐसी ज़िन्दगी से, खुश नहीं हूँ |
जिसे साँसों ने ही, घायल किया है ||मेरे अपनों ने मुझको डस लिया है 
'शशि' रोने से कुछ हासिल न होगा |
तुझे किस्मत ने शोर-ए-दिल दिया है ||मेरे अपनों ने मुझको डस लिया है 








मेरे अपनों ने मुझको, छल लिया है |

वलवले

भरोसा आज फिर, उस पर किया है |
मुझे जिसने हमेशा, दुख दिया है || 
बहुत मजबूर हूँ, आदत से है अपनी |
हमेशा सुख दिया है, दुख लिया है ||

जितने अपनों ने गम हैं दे डाले |
दिल में उतने हैं, दर्द के छाले ||
चाह कर दर्द-ए-दिल, नहीं थमता |
कोई समझाए क्या दवा खा लें || 

साथ कदमों ने देना छोड़ दिया |
ख्वाब आँखों ने लेना छोड़ दिया 
खूब तकदीर ने वफ़ा की है |
साथ खुशियों ने, देना छोड़ दिया || 

मेरे श्रवण को, ये क्या हो गया है |
जगा के मुझको, खुद वो सो गया है ||
है मेरा हाल क्या, अब क्या कहूँ मैं |
मेरे दिल का, सुकूँ सब खो गया है ||

नहीं मिलती है, फुर्सत सोचने की |
बहुत बेचैन रहने लग गया हूँ ||
मेरे दिल में कोई, डर बस गया है |
मैं हर इक, पल से डरने लग गया हूँ ||   



Thursday, June 9, 2011

वलवले


अपने ख्याल में, वो मुझे मात दे गया |
सावन वो मेरी आँख को, सौगात दे गया ||
एहसान कर गया है, या खैरात दे गया |
जिसकी सुबह नहीं, मुझे वो रात दे गया ||
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मेरी आँखों के सावन से, तो अब सावन भी डरता है |
इन्हें बरसों बरसना है, वो कुछ अर्सा बरसता है ||
बहुत ही  क्म, फर्क पाया, मेरी आँखों ने दोनों में |
ये इक रफ़्तार से बरसे, वो थम-थम के, बरसता है ||
कभी सावन कि बारिश, हंसी में उससे मांगी थी |
मुक्कदर अब 'शशि' अक्सर, हंसी मेरी पे हँसता है || 

Wednesday, June 8, 2011

वलवले



बदल सकता है जो, दरिया के धारे |
मैं उस हस्ती का, लोहा मानता हूँ ||
सुना हर शैय में वो, ज़लवा-नुमाँ  है |
मैं हर शैय को, खुदा ही जानता हूँ ||
न तेरी, शक्ल से वाकिफ, न दर से | 
तेरे हर तौर को, पहचानता हूँ ||
खुदा हो, वाहेगुरु,ईश्वर या ईसा |
मैं सब में फर्क न कुछ, मानता हूँ || 
नहीं है नास्तिक, लगता है बेशक |
'शशि' को खूब मैं, पहचानता हूँ ||

वलवले

तुम्हारा गुजरा कल, मैं आज-कल हूँ |
मुकम्मल हूँ मैं, बेशक एक पल हूँ ||
है जिस रफ़्तार से, माहौल बदला |
शुक्र है कि, गया मैं भी बदल हूँ ||
सहल माना, रहे-मंजिल नहीं है | 
मैं मंजिल की, तरफ आया निकल हूँ ||
'शशि' दलदल में, दुनियाँ की फंसा है 
वो कहता है कि, मन्निंदे कमल हूँ ||

वलवले

आप ने है खूब समझा, खूब पहचाना हमें |
आपने ही तो,बना डाला है, दीवाना हमें ||
आप को मिलने से पहले, हम बड़े नादान थे |
आज लेकिन आ गया है, लिखना-ओ-गाना हमें || 
कल मन पाते नहीं थे, खुद को भी हम चाह के |
आ गया है अब तो, रूठों को मन पाना हमें ||
होश खो देने से गर, खुशियाँ मय्यसर हो 'शशि' |
क्यूँ भला मंज़ूर हो, फिर होश में आना मुझे || 

Monday, June 6, 2011

शोर-ए-दिल

नाहक तुझे भुलाने का, दावा था कर रहा |
दिल छुप के तेरी याद में, आहें था भर रहा ||
आँखें न भूलीं देखना, तेरे घर की, खिड़कियाँ |
तेरी गली से जब था, अचानक गुजर रहा ||
आँखों को तेरी दीद की, शिद्दत से प्यास थी |
सीने में दिल अजीब सा, था शोर कर रहा ||
दीवानगी थी ढूँढना, मुद्दत के बाद भी, 
तुमको वहाँ, जो था कभी, तेरा पीहर रहा ||
था तेरी रहगुज़र से, 'शशि' बा-उम्मीद, पर |
उस रहगुज़र से क्या, न ज़हाँ तेरा घर रहा ||    

Sunday, June 5, 2011

वलवले


मुझे नफरत से नफ़रत, हो रही है |
न जाने क्यूँ ये हालत हो रही है || 
बिना मतलब, मुहब्बत अब नहीं है |
मुहब्बत की, तिजारत हो रही है ||
अक्ल की रौशनी धुँधला रही है |
हाँ बे-अकलों की, इज्ज़त हो रही है ||
नहीं कोई जानता, मायने वफ़ा के |
जाफा-कारों की, शोहरत हो रही है ||
'शशि' अपनी न तुम, आदत बदलना |
तुम्हें गर यूँ, मुसर्रत, हो रही है ||    

वलवले


किये अपने पे, पछताता बहुत है |
तड़पता है, जो तड़पाता बहुत है ||
वो महफ़िल में, भी समझे, खुद को तंहा |
हो तन्हाई तो, घबराता बहुत है ||     
कहे न, हाल के बारे में, कुछ भी | 
सिर्फ माझी को, दोहराता बहत है ||
दिखावे के लिए है, मुस्कराता |
वो दिल ही दिल में, गम खाता बहुत है ||
किनारा कर लिया अपनों से उसने |
उसे खुद पर, तरस आता बहुत है ||
वो अब गैरों में अपने ढूंढ़ता है |
'शशि' के पास वो आता बहुत है ||

शोर-ए-दिल

मैं शौक-ए-मुहब्बत से, बाज़ आ गया हूँ |
ऍ साकी तेरे पास, आज आ गया हूँ || 
गलत है मुहब्बत, मुहब्बत से मिलती  |
समझ के ज़हाँ से, ये राज़ आ गया हूँ ||
फरेबी धुनें जो थे, मुझको सुनाते |
मैं सब तोड़ करके, वो साज़ आ गया हूँ ||
सुना है सुकूँ, बस यहीं पर है मिलता |
तेरे दर पे, बंद-नवाज़ आ गया हूँ ||  
'शशि' तुम निभाते रहो, रस्मे-उल्फत |
भुला के मैं, रस्मो-रिवाज़ आ गया हूँ ||

शोर-ए-दिल

बनाया बन्दगी को, था ये बन्दा |
यहाँ दिखता कोई बन्दा नहीं है ||
हम, इक-दूजे को, कहते चाँद सा है |
फलक पे, क्या रहा, चन्दा नहीं है ||   
तिजारत जिस्म तक की, हो रही है || 
ये धंधा तो, कोई धंधा नहीं है ||
ज़हन के बंद, तो कर लूँ दरींचे |
समझता सब है ये, अँधा नहीं है ||
मैं क्यूँ कर, बेच दूँ , ईमान अपना |
ये सरमाया मेरा, सौदा नहीं है ||
हमें दिखता है, सब चल-फिर रहे हैं ||
मगर लगता कोई, ज़िन्दा नहीं है ||




शोर-ए-दिल

बनाया बन्दगी को, था ये बन्दा |
यहान्न दीखता कोई बन्दा नहीं है ||
हम, इक-दूजे को, कहते चाँद सा है |
फलक पे, क्या रहा, चन्दा नहीं है ||   
तिजारत जिस्म तक की, हो रही है || 
ये धंधा तो, कोई धंधा नहीं है ||
ज़हन के बंद, तो कर लूँ दरींचे |
समझता सब है ये, अँधा नहीं है ||
मैं क्यूँ कर, बेच दूँ , ईमान अपना |
ये सरमाया मेरा, सौदा नहीं है ||
हमें दिखता है, सब चल-फिर रहे हैं ||
मगर लगता कोई, ज़िन्दा नहीं है ||




Saturday, June 4, 2011

शोर-ए-दिल

खौफ अब, हर ख़ुशी से आता है |
मेरा माझी, मुझे डराता है ||
लम्हा-लम्हा, ये ज़िन्दगी जी है |
लम्हे-लम्हे का, अपना खाता है ||
जो भी मुश्किल से, याद करता हूँ |
वो आसानी से, भूल जाता है ||
जिससे तस्कीन की, तवक्को हो |
वो ही तकलीफ, दे के जाता है ||
याद करता, हूँ जब रकीबों को | 
नाम लब पे, तुम्हारा आता है ||
दिल बना है, न जाने किस शेय का |
खूब रोता है, खूब गाता है ||
मौसमों का अजीब आलम है |
एक जाता है, एक आता है ||
सोच कर क्या, 'शशि' खुदा आखिर |
खुद बनाता है, खुद मिटाता है ||

  

Thursday, June 2, 2011

शोर-ए-दिल

ये कैसा दौर अब, बरपा गया है |
जवानी पे, बुढापा छ गया है ||
यहाँ पर, शेर तक, सहमे हुए हैं |
कोई लगता, इन्हें धमका गया है ||
उठा कर सर कोई चलता नहीं है |
लगा, शायद कोई, पहरा गया है ||
यहाँ जीना तो, अब लगता सजा है |
हर इक, डर से, यहाँ बौरा गया है ||
'शशि' सब कुछ, बदल दो जिस तरह हो |
चलन दस्तूर जो, बिगड़ा गया है ||    

वलवले

मुझे तो सुख ज़रा सा ही बहुत है |
फक्त झूठा दिलासा ही बहुत है ||
कहाँ तफसील है, दरकार मुझको |
सिर्फ थिदा खुलासा ही बहुत है ||
नहीं लबरेज़ पैमाने की हसरत |
ये थोडा कम भरा सा ही बहुत है ||
जो अब कुछ-कुछ, डरा सा लग रहा है |
वो इतना भी डरा सा ही बहुत है ||     

शोर-ए-दिल

चला तो खूब हूँ, लगता है फिर भी |
बचा बाकी अभी, रस्ता बहुत है ||
जिसे घुन पारसाई, का लगा हो |
हमें उस शाख का, पत्ता बहुत है || 
यहाँ ईमान बिकता, है सुना है |
किसी कीमत पे ये, सस्ता बहुत है ||
बजाहिर तो जो, पुख्ता लग रहा है |
हकीकत में तो वो, खस्ता  बहुत है ||
जिसे खल्क-ए-खुदा की, शर्म होगी | 
वो हर इक दाग से, बचता बहुत है ||
'शशि' जब से सुना, सूफी हुआ है |
वो अपने आप पर, हंसता बहुत है ||