यही अफ़सोस, मुझको खा रहा है |
जो मेरा है, मुझे, तडपा रहा है ||
जिसे श्रवन, कहा करता था सब में |
वो बन के साँप, डसने आ रहा है ||
वो देता रोज़ है, झूठे दिलासे |
मेरी हस्ती को वो, ठुकरा रहा है ||
वो इक मक्कार की, साज़िश का मारा |
नसीहत को मेरी, झुठला रहा है ||
मुझे हर बार ही, लगता है जैसे |
किये अपने पे वो, पछता रहा है ||
'शशि' दर भी रहा है, दिल ही दिल में |
वो धोखा तो नहीं, फिर खा रहा है ||
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