स्याही, रात-दिन, तारी है हर सू |
अक्ल वालों ने, अँधेरा किया है ||
वहाँ इन्साफ के, कातिल हैं पलते |
सियासत ने जहाँ, डेरा किया है ||
हुआ मजबूर, खामोशी को हर इक |
यकीनन, ज़ुल्म ने, फेरा किया है ||
सिमटती जा रही, अब हर ख़ुशी है |
ग़मों ने जब से, तंग घेरा किया है ||
'शशि' से है शिकायत, हर किसी को |
बयाँ क्यूँ हाल सब, मेरा किया है ||
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