Tuesday, November 9, 2010

shoredil

इब्तदा थी मैं इन्तहा समझा ! एक गुलचीं को बागबाँ समझा !!
भूल कह लो इसे या नादानी! बेरहम को है मेहरबाँ समझा !!
ज़हन में इतने चेहरे बसते हैं !मैंने खुद को ही कारवाँ समझा !!
खुद फरेबी में ज़िन्दगी गुजारी ! झूठ को सच सदा यहाँ समझा !!
राख थी जो मेरे नशेमन की !उसको उड़ता हुआ धुआं समझा !!
कोई मकसद नहीं है जीने का ! बाद सब कुछ शशि गवाँ समझा !!

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